बुधवार, 24 अगस्त 2011

सुल्ताना डाकू की नयी भूमिका में सरकार

      कहा जाता है कि सुल्ताना एक भला डाकू था जो अमीरों को लूट कर गरीबों में बाँटता था। हमारे देश की सरकार यही काम अमीरों के हित में कर रही है। नवउदारवादी अर्थशास्त्री, राजनेता, नौकरशाह और पत्राकार हर घड़ी इस मंत्रा का जाप करते रहते हैं कि सरकार को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन जिन्दगी में हमें हर कदम पर इसके विपरीत आचरण दिखाई देता है। गरीबों को पूँजीपतियों की लूट से बचाना हो, मँहगाई पर नियन्त्राण करना हो, मजदूरी बढ़ानी हो या उनकी सुरक्षा का मामला हो तो सरकार हस्तक्षेप नहीं करती। हाँलाकि इन समस्याओं के लिए सरकारी हस्तक्षेप और उसके द्वारा बनायी गयी पूँजीपरस्त नीतियाँ ही जिम्मेदार होती हैं। दूसरी ओर पूँजीपतियों को हर तरह की जायज-नाजायज छूट देने और उनकी तिजोरी भरने का काम सीधे सरकारी हस्तक्षेप से ही हो रहा है।
      आमतौर पर यह धारणा बना दी गयी है कि सबसिडी या सरकारी सहायता का मतलब सीधे आर्थिक अनुदान देना है जबकि इसके कई दूसरे तरीके हो सकते हैं। आधुनिक सुल्ताना डाकू आज गरीबों को दी जाने वाली सहायता में कटौती का कोई मौका नहीं छोडते, जबकि पूँजीपतियों को अनुदान देने के नये-नये तरीके निकालते रहते हैं। पूँजी से होने वाले आम मुनाफे के अलावा हर साल लाखों करोड  रुपये इन्हीं उपायों के जरिये पूँजीपतियों की तिजोरी में पहुँच रहे हैं।
      एक अध्ययन के मुताबिक 2009-10 के बजट में सरकार ने कारपोरेट टैक्स में रियायत के रूप में पूँजीपतियों को 80,000 करोड़ रुपये का तोहफा दिया, जो उनके कुल मुनाफे का 16 प्रतिशत बैठता है। व्यक्तिगत आयकर के मद में उन्हें 41000 करोड  की छूट दी गयी। सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क में सरकार ने जो भी छूट दी उसका लाभ अपने उत्पादों की कीमत कम करके जनता तक पहँुचाने के बजाय पूँजीपति खुद डकार गये। इस तरह केवल 2009-10 के बजट में ही सरकार ने कारपोरेट टैक्स, व्यक्तिगत आयकर, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क के रूप में 5,00,000 करोड  रुपये का राजस्व पूँजीपतियों पर निछावर कर दिया जो कुल राजस्व का 80 प्रतिशत है। इस बात को सरकार ने बजट भाषण में स्वीकार किया है कि कारपोरेट टैक्स में दी जाने वाली छूट की रकम हर साल बढ  रही है।
      टैक्स में छूट तो पूँजीपतियों को दिये जाने वाले सरकारी अनुदान का केवल एक जरिया है। इसके और भी कई रूप हैं, जैसे -मुफ्त या सस्ती जमीन, बिना ब्याज के कर्ज, सार्वजनिक क्षेत्रा की कम्पनियों और प्राकृतिक संसाधनों की मिट्टी के मोल नीलामी, अपने निवेश को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना और सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम आय की गारण्टी के रूप में अधिक मुनाफा बटोरना (प्राकृतिक गैस में रिलायन्स
का निवेश), मोबाइल फोन सेवा के लाइसेन्स और स्पेक्ट्रम की बाजार भाव से बहुत कम कीमत पर बिक्री (जिसके चलते संचारमंत्री जेल में हैं), बकाया कारपोरेट टैक्स की वसूली में ढिलाई, पूँजीपतियों द्वारा बैंक का कर्ज न चुकाना या कर्जों की कड़ाई से वसूली न करना, नाना प्रकार के बकाया रकम की वसूली में ढिलाई (निजी विमान सेवा कम्पनियों पर पेट्रोल का बकाया), पूँजीपतियों के हित में सरकारी खर्च पर संरचनागत निर्माण... सूची काफी लम्बी है।
       टाटा ने गुजरात में नैनो कार की जो फैक्ट्री लगायी है उसमें 2000 करोड़ रुपये का निवेश किया है। गुजरात सरकार ने 0.1 प्रतिशत ब्याज पर 9,750 करोड  रुपये का कर्ज दिया, 15 प्रतिशत वैल्यू एडेड टैक्स माफ कर दिया, स्टाम्प शुल्क माफ कर दिया और बेहद सस्ती कीमत पर जमीन दी। कुल मिलाकर टाटा को 2000 करोड  के निवेश पर अगले 20 वर्षों में 30,000 करोड  का सरकारी अनुदान हासिल होगा। दूसरे शब्दों में 1,00,000 रुपये की टाटा नैनो कार पर 60,000 रुपये (60 प्रतिशत) सरकारी सबसिडी है। टाटा पर मेहरबानी करने में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार भी पीछे नहीं रही है। उसने सिंगूर में टाटा द्वारा 20 करोड  के निवेश के बदले 1400 करोड  जमीन के मुआवजे के मद में खर्च कर दिया था।
      निजी क्षेत्र को सरकारी अनुदान देने का एक नया जरिया निजी-सरकारी साझेदारी (पीपीपी) है। योजना आयोग चाहता है कि वर्तमान पंचवर्षीय योजना में 25,00,000 करोड  रुपये के और बारहवीं पचंवर्षीय योजना (2012-17) में 50,00,000 करोड  के अवरचनागत निर्माण में निजी क्षेत्रा की 30 प्रतिशत हिस्सेदारी हो। लेकिन निजी क्षेत्रा इस काम में तभी हाथ डालेगा जब उसे आकर्षक लाभ की गारण्टी हो। आर्थिक
सर्वेक्षण 2008-09 में यह स्वीकार किया गया है कि सरकार उनके लिए पर्याप्त मुनाफे की गारण्टी करने के लिए किसी प्रोजेक्ट के कुल खर्च का 20 प्रतिशत व्यावहारिक अन्तर निधि (वीजीएफ) के रूप में और 20 प्रतिशत अतिरिक्त अनुदान के रूप में उन्हें अलग से देगी। इस तरह यह निजी निवेशकों के लिए 40 प्रतिशत की शुद्ध सबसिडी है। योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में कुल 7,00,000 करोड  रुपये की पीपीपी योजना चल रही है। इनमें से सबको 40 प्रतिशत की सबसिडी नहीं मिलेगी लेकिन इसकी क्षतिपूर्ति दूसरे रूपों में जरूर की जायेगी। उदाहरण के लिए कुख्यात रामालिंगा राजू की मेटास कम्पनी को हैदराबाद मैट्रो के सौदे में व्यावहारिक उपयोग के लिए काफी महँगी जमीन दी गयी थी।
       योजना आयोग के एक वरिष्ठ सलाहकार गजेन्द्र हल्दिया की रिपोर्ट में बताया गया है कि वीजीएफ के रूप में निवेशकों को भारी अनुदान देने के चलते राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) के अगले तीन वर्षों में दिवालिया होने का खतरा है क्योंकि उसे विभिन्न मदों में 92,000 करोड़ रुपये निवेशकों को देने हैं। सड क परिवहन मंत्राी कमलनाथ ने 7000 किमी सड क हर साल बनाने की योजना ली थी जिस पर 3,70,000 करोड  का खर्च आना था। हल्दिया की इस रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने योजना आयोग के ''सुविधापरस्त सलाहकार'' कह कर खिल्ली उड़ाई जबकि एक उच्च अधिकारी ने यह भी स्वीकार किया कि 2012-13 तक एनएचएआई पर 85,000 करोड का कर्ज चढ ने का अनुमान है।
      'सरकारी हस्तक्षेप' एक ऐसा शब्द है जिसे पूँजीपति और सरकार, अपने हानि-लाभ के हिसाब से इस्तेमाल करती है। डीजल और गैस का दाम बढ़ाने के मामले में सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी, लेकिन सडक बनाने या अन्य मामलों में सरकारी हस्तक्षेप से तिजोरी भरने में उसे कोई गुरेज नहीं।
       एक अनुमान के मुताबिक अगर सार्विक खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के तहत देश के हर परिवार को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराना हो तो ९ करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी जिस पर वर्तमान दर से 1,20,000 करोड  रुपये अनुदान राशि खर्च होगीं। आज भी यह अनुदान राशि 50,000 करोड  है यानी पूरे देश के लिए भोजन की गारण्टी करने पर 70,000 करोड  रुपये का अतिरिक्त खर्च आयेगा। पूँजीपतियों को विभिन्न मदों में दिये जाने वाले अनुदान के आगे यह राशि कुछ भी नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं होगा। यह बाजार के मामले में सरकारी हस्तक्षेप माना जायेगा क्योंकि जब सबको सस्ता अनाज मिलेगा तो कारगिल,  आइटीसी, मोनसेन्टो और वालमार्ट का क्या होगा? उनके अनाज व्यापार, वायदा कारोबार और अन्धाधुन्ध मुनाफे का क्या होगा? आर्थिक सुधारों के घोडें पर सवार सुल्ताना डाकू अपनी नयी भूमिका में लूटने और बाँटने का काम पूरी मुस्तैदी से कर रहा है।

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