सोमवार, 29 अगस्त 2011

निजीकरण - सार्वजनिक सम्पत्ति की कौड़ियों के मोल नीलामी

      अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शर्तों के एक अन्य पहलू पर तेजी से अमल करते हुए भारतीय शासकों ने सार्वजनिक क्षेत्रा के कारखानों, खदानों, गैस और तेल के भण्डारों, बैंक-बीमा कम्पनियों तथा ओएनजीसी, गेल, बीएचइएल, बीएसएनएल जैसे नवरत्न संस्थानों को कौड़ियों के मोल देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया। अपने इस कुकृत्य को उन्होंने विनिवेशीकरण और निजीकरण जैसे आकर्षक नाम दिये। इसके पीछे उनका तर्क था कि घाटे में चलने वाले सार्वजनिक क्षेत्रा के निगमों के कारण ही राजस्व घाटा बढ ता गया। उनकी बिक्री से बजट घाटा कम होगा, साथ ही उन निगमों को निजी पूँजी की सहायता से लाभदायक भी बनाया जायेगा। लेकिन वास्तव में यह कदम मुनाफे पर चलने वाले सार्वजनिक क्षेत्रा की संस्थाओं पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों की गिद्धदृष्टि का परिणाम था।
       आजादी के बाद जनता की कमाई से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्रा के निगमों को नेहरू ने नये भारत का ''मन्दिर'' और अर्थव्यवस्था की ''नियन्त्राण चौकी'' कहा था। पिछले 20 वर्षों में उनका बंदरबाँट कर दिया गया। प्राकृतिक गैस के 95 प्रतिशत भारतीय कारोबार पर सार्वजनिक क्षेत्रा की कम्पनी गैस अथॉरिटी ऑफ इण्डिया लिमिटेड (गेल) का नियन्त्राण था। इस कम्पनी की सालाना आमदनी हजारों करोड थी। सरकार ने इसका 20 प्रतिशत मालिकाना हिस्सा 70 रुपये प्रति शेयर के भाव बेच दिया जबकि उसके शेयरों का बाजार भाव 183 रुपये था और इससे भी अधिक कीमत मिलने की सम्भावना थी। इस तरह इस सौदे से रातों-रात हजारों-करोड  रुपये इसमें लिप्त सरकारी अधिकारियों, नेताओं और पूँजीपतियों की तिजोरी में चले गये। बीएसएनएल के जिस शेयर की कीमत 1100 रुपये थी, उसे महज 750 रुपये के भाव बेचा गया। हाल ही में चर्चित टेलीकॉम घोटाले के कारण संचारमंत्री ए राजा जेल में है। नियन्त्राक और लेखा परीक्षक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक लाइसेन्स फीस में घोटाले के चलते सरकार को 1,76,000 करोड़ रुपये का चूना लगा है। दरअसल दूरसंचार क्षेत्र में 1996 से ही, जब सुखराम संचारमंत्री थे, लगातार घोटाले हो रहे हैं। सबको पता है कि छापों के दौरान उनके पूजा घर से लेकर शौचालय तक में रुपये ही रुपये बरामद हुए थे, जिनके बारे में उन्हें मालूम ही नहीं था कि ये पैसे कहाँ से आ गये! 1991 के बाद चाहे जिस भी पार्टी की सरकार रही हो, सबने एक से बढ कर एक घोटाले किये हैं। ओएनजीसी द्वारा खोजे गये तेल के भण्डारों को निजी पूँजीपतियों के हवाले करने के चलते देश को हजारों करोड  का नुकसान हुआ। कृष्णा बेसिन के तेल भंडार रिलायन्स को सौंपने से सम्बन्धित नियन्त्राक और लेखा परीक्षक की रिपोर्ट अभी हाल ही में आयी हैं इसका निचोड  यह है कि पैट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारियों से साँठ-गाँठ करके रिलायन्स कम्पनी ने समझौते में ऐसी शर्तें रखी, जिससे सरकार को करोड़ों-अरबों रुपये का नुकसान हुआ।
      इन चन्द घटनाओं से उस विराट लूट का कुछ अन्दाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह आजादी के बाद के 50 वर्षों में मेहनतकशों की कमाई से निर्मित सार्वजनिक सम्पत्ति को देशी-विदेशी पूँजीपतियों को कौडि यों के मोल बेच दिया गया। इसके अलावा अर्थव्यवस्था के जिन क्षेत्रों में पहले विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत नहीं थी, उनमें भी आसान शर्तों और भारी मुनाफे की गारण्टी के साथ पूँजी निवेश की इजाजत दे दी गयी। इसका एक बहुचर्चित उदाहरण है अमरीकी कम्पनी एनरॉन की डाभोल विद्युत परियोजना जिसने बिजली का उत्पादन शुरू करने से पहले ही अरबों रुपये डकार लिये और महाराष्ट्र बिजली बोर्ड को कंगाल बना दिया था। इस कम्पनी ने फर्जी तरीके से लागत मूल्य बढ़ाकर प्रति यूनिट बिजली की कीमत देशी कम्पनियों की तुलना में काफी मँहगी कर दी। महाराष्ट्र सरकार ने यह करार किया था कि एनरॉन द्वारा उत्पादित पूरी बिजली खरीदने को वह बाध्य होगी, चाहे उसकी लागत और मूल्य कितना भी अधिक हो। इसके साथ ही सरकार ने उसे 16 प्रतिशत मुनाफे की गारण्टी भी दी थी।
      निजीकरण की इस आँधी से स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, पीने का पानी, बिजली, अनाज व्यापार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शोध संस्थान, प्रयोगशाला, बैंक, बीमा, यातायात, सामाजिक सेवाएँ, जनकल्याण कार्यक्रम, भारतीय जीवन का कोई भी पहलू बच नहीं पाया है। साम्राज्यवादपरस्त अर्थशास्त्रा का नारा है 'बाजार के मामले में सरकार अपनी दखलन्दाजी बन्द करे' जबकि सरकार की सीधी दखलन्दाजी और मेहरबानी से ही बाजारवाद फलफूल रहा है। गुलामी के इस दौर में जनता के लिए जरूरी सेवाएँ मुनाफे का साधन बन गयी हैं। इसका सबसे बुरा प्रभाव पहले से ही वंचित तबकों पर पड़ा है जिनकी आमदनी कम होती जा रही है। निजीकरण और बेलगाम पूँजीवाद के इस दौर में ऐसा होना लाजिमी है क्योंकि पूँजीवाद का मकसद अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। बाजार अर्थव्यवस्था केवल उसी की परवाह करती है जिसकी जेब में पैसा हो।
      सरकारी सेवाओं के निजीकरण को अब एक नया खूबसूरत नाम दिया गया है निजी सार्वजनिक साझेदारी। अभी हाल ही में योजना आयोग ने सरकारी स्कूलों, अस्पतालों और पेयजल जैसी जनसेवाओं को निजी पूँजीपतियों को उसी तरह ठेके पर देने का सुझाव दिया है, जैसे पीडब्ल्यूडी सड़क बनाने के लिए ठेका देता है। हकीकत यह है कि आज जो भी थोडे  से सरकारी अस्पताल और स्कूल बचे हैं, वहीं गरीबों का गुजारा हो रहा है। विश्व बैंक के मुताबिक स्वास्थ्य सेवाओं पर जनता द्वारा किये गये कुल खर्च में केवल 17 प्रतिशत सरकार वहन करती है। बाकी 83 प्रतिशत निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम की लूट और कमाई का जरिया है। यही हाल स्कूलों का भी है। योजना आयोग का सुझाव सरकार द्वारा अपनी रही-सही जिम्मेदारी से हाथ उठाते हुए जरूरी जनसेवाओं को पूँजीपतियों, ठेकेदारों और माफिया सरगनाओं को सौंपने का खुला ऐलान है।

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