बुधवार, 24 अगस्त 2011

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण और मेहनतकश वर्ग के सामने चुनौतिया


    वैश्वीकरण पूँजी की स्वाभाविक गति है। सामंतवाद की स्थानीय, प्राकृतिक और पिछड़ी अर्थव्यवस्था से भिन्न, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का चरित्रा वैश्विक होता है। अपने तैयार माल के लिए बाजार और कच्चे माल की तलाश में पूँजीवाद ने दुनिया का कोना-कोना छान मारा। यूरोप द्वारा नयी दुनिया की खोज और उपनिवेशों की स्थापना इसी प्रक्रिया का परिणाम था।
     लेकिन वैश्वीकरण के मार्ग में कई बाधाएँ थी। इसमें सबसे बड़ा अवरोध उपनिवेशवाद था क्योंकि उपनिवेशों के मालिक अपने विजित इलाके में दूसरे पूँजीवादी देशों को कारोबार की इजाजत नहीं देते थे। पूँजीवाद के साम्राज्यवादी दौर में प्रवेश के बाद पूँजी निवेश और बाजार के संकट को हल करने के लिए उपनिवेशों के बँटवारे और पुनर्बटवारे के लिए साम्राज्यवादी समूहों के बीच युद्ध शुरू हुआ जिसकी परिणति दो विश्व युद्धों में मानवता की भीषण तबाही में हुई। विश्वयुद्धों के दौरान ही समाजवादी क्रान्तियों और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का दौर भी शुरू हुआ। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति तक आधी दुनिया में समाजवादी व्यवस्थाएँ कायम हो चुकी थीं और तीसरी दुनिया के अधिकांश देश आजाद हो गये थे। बाकी बचे उपनिवेशों में भी राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संघर्ष जारी रहा। समाजवादी देश और तीसरी दुनिया के नवस्वाधीन देश साम्राज्यवाद के खिलाफ एक दूसरे के स्वाभविक मित्रा थे। सामाजवादी खेमे ने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का भरपूर समर्थन और सहयोग किया। दोनों ने ही पूँजी के अश्वमेघ के घोड़े को आगे बढ ने से रोका, समाजवादी देशों की तरह तीसरी दुनिया के नवस्वाधीन देशों में साम्राज्यवाद से पूरी तरह सम्बन्ध-विच्छेद तो नहीं किया लेकिन आत्मनिर्भर विकास और साम्राज्यवादी पूँजी के दबाव से यथासम्भव बचने की रणनीति जरूर अपनायी।
     आगे चलकर 1956 में सोवियत संघ और 1976 में चीन में समाजवाद के पराभव और पूँजीवाद की वापसी के बाद समाजवादी खेमा बिखराव का शिकार हो गया। समाजवाद से मिलने वाले सहयोग और समर्थन के अभाव में राष्ट्रीय मुक्ति की धारा को भारी झटका लगा। इस तरह इन दोनों धाराओं की कमजोरी ने साम्रज्यवाद को बल प्रदान किया।
    राष्ट्रीय मुक्ति की अन्तर्वस्तु पूँजीवादी होती है। साम्राज्यवादी दौर में पूँजीवाद के प्रतिक्रियावादी हो जाने के चलते तीसरी दुनिया के नवस्वाधीन देशों के शासकों का चरित्रा पूँजीवाद के यौवन काल जैसा क्रान्तिकारी नहीं था। चूँकि विश्व शक्तिसंतुलन साम्राज्यवाद के खिलाफ था और समाजवाद उन्हें भरपूर समर्थन देने के लिए साथ खड़ा था, इसलिए उन्होंने साम्राज्यवाद के हमलों से बचते हुए अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं का विकास किया। बदली हुई परिस्थतियों में पिछडी उत्पादक शक्तियों और ढाँचागत संकट के शिकार तीसरी दुनिया के इन पूँजीवादी शासकों के सामने साम्राज्यवाद के साथ गठजोड  करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। समाजवाद का परित्याग करने वाले देशों की राजकीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाएँ भी संकटग्रस्त होती गयीं और पूँजी के तर्क से संचालित होने वाले इन देशों के शासक वर्ग भी साम्राज्यवादी विश्व-व्यवस्था का अंग बनने को बाध्य हो गये। यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का विकल्प केवल समाजवाद ही हो सकता है जिससे वे पहले ही किनारा कर चुके हैं।
     इस तरह 1990 तक विश्व शक्ति संतुलन में बदलाव ने अमरीकी चौधराहट वाले एक ध्रुवीय विश्व-व्यवस्था को बढ़ावा दिया। लम्बे समय से मंदी के चिंरतन संकट से जूझ रहे साम्राज्यवादी देशों को पूँजी संचय और निवेश के लिए एक बहुत बड़ा इलाका हाथ लग गया। सूचना तकनीक में अभूतपूर्व विकास सेटेलाइट, कम्प्यूटर और दूरसंचार की खोज ने एक देश से दूसरे देश में पूँजी की आवाजाही को बेहद आसान बना दिया। इसी मोड  पर अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी समूह ने अपनी पूँजी के वैश्वीकरण की मुहिम शुरू की।
     इतिहास के इस मोड़ पर साम्राज्यवाद खुद ही पूँजी के वैश्वीकरण में बाधक है। वह चिरस्थायी ढाँचागत संकट का शिकार है और तीसरी दुनिया के देशों पर अपने संकट का बोझ डालता जा रहा है। वैश्वीकरण के जरिये वह तीसरी दुनिया का समग्र विकास करने नहीं आ रहा है बल्कि उसके स्वाभाविक विकास को बाधित कर रहा है। साम्राज्यवाद के साथ इन देशों का सम्बन्ध बराबरी का नहीं बल्कि वर्चस्व और मातहती का सम्बन्ध है। साम्राज्यवाद मुक्त व्यापार का नहीं बल्कि एकाधिकार का समर्थक है। दुनिया के विभिन्न देशों में पूँजीवादी विकास और उत्पादक शक्तियों के स्तर में बहुत ज्यादा अन्तर है। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण इस भेदभाव और विषमता को खत्म करने के बजाय बढ़ाता ही जा रहा है।
     प्रश्न यह है कि क्या वैश्वीकरण के इस दौर में साम्राज्यवाद के साथ संशय कायम करके तीसरी दुनिया का कोई देश अमरीका और यूरोप के बराबर पहुँच सकता है।
     यह सही है कि इन देशों की विकास दर ज्यादा है तथा बाजार, सस्ता श्रम और प्राकृतिक संसाधन के मामले में अनुकूल माहौल है। लेकिन साम्राज्यवाद के साथ इन देशों का रिश्ता सम्पूर्ण और अंश का रिश्ता है। जब सम्पूर्ण संकटग्रस्त हो तो उसके ऊपर निर्भर अंश उसके अधीन रहते हुए उसकी बीमारियों से बच नहीं सकता। सम्पूर्ण से खुद को काट कर भी अंश कोई नयी रचना नहीं कर सकता। साम्राज्यवादी आज अपने निकृष्ट स्वार्थों के अनुरूप नीतियाँ बना और लागू करवा रहे हैं। वे ययाति की तरह अपने बुढ़ापे की इन सन्तानों से अपने लिए यौवन माँग रहे हैं। इसी का नतीजा है कि तीसरी दुनिया का संकट हल होने के बजाय और भी भयावह रूप धारण कर रहा है।
     तीसरी दुनिया में विकास की भरपूर सम्भावनाएँ हैं लेकिन इसकी बुनियादी शर्त है कि साम्राज्यवादी मुक्त हस्त से अपनी तकनीक तीसरी दुनिया को हस्तगत करें, श्रम की मुक्त आवाजाही पर उसी तरह रोक हटाएँ जैसे पूँजी के मामले में किया है। वे अपने उद्योगों को संरक्षण और सरकारी सहायता देना बन्द करें तथा पर्यावरण और धरती को बचाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लें। क्या वे ऐसा करेंगे? अगर नहीं, तो पूँजीवादी दौड़ में 200-300 वर्ष तक हाशिये पर पड़े तीसरी दुनिया के देश भला उसके मुकाबले में टिक पायेंगे?
     तीसरी दुनिया के देशों को वर्तमान स्तर पर साम्राज्यवादी देशों की बराबरी करना इसलिए भी असम्भव है कि उनके उपभोग के स्तर तक पहुँचने के लिए इस धरती पर पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। कुछ साल पहले अकेले टोकियो शहर पूरे चीन के बराबर बिजली की खपत करता था। अमरीकी जीवन शैली को भारत की पूरी जनता के लिए औसत प्रतिव्यक्ति सुलभ बनाना हो तो हमारी धरती जैसे पाँच ग्रहों के संसाधन भी कम पड़ेंगे। इसलिए महाशक्ति बनने और विकसित देशों के बराबर पहुँचने जैसी बातें करना हास्यास्पद है। पूँजीवाद का यह विकृत, रुग्ण और वहशी उपभोक्तावादी स्वरूप हमारा आर्दश नहीं हो सकता। न्याय और समता पर आधारित समाज, प्रकृति और इन्सान के बीच सामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों पर ही आधारित हो सकता है, जहाँ सीमित मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का समुचित बंटवारा हो, जहाँ समाज की चालक शक्ति पाशविक भोगवाद, चरम स्वार्थ और बाजार की सनक नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति का हित हो।
     इतिहास ने वैश्वीकरण के इस विनाशकारी तांडव को रोकने का दायित्व मेहनतकश वर्गों के कंधों पर सौंपा है जो श्रम के दर्शन और उसकी गरिमा तथा न्याय और समानता की ठोस जमीन पर खड़ा होकर साम्राज्यवाद का सही विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं। साम्राज्यवाद के साथ साँठ-गाँठ करने वाले रुग्ण और पुंसत्वहीन पूँजीवाद से हम इसकी आशा नहीं कर सकते। अपने स्रोत-संसाधनों और व्यापक जनता के परिश्रम के बल पर ही नये समाज के निर्माण का सपना देखना और उसे सच्चाई में बदलना सम्भव है। उत्पादक शक्तियों के विकास ने इसकी वस्तुगत परिस्थिति तैयार कर दी हैं।
     दूसरे की कमाई पर पलने वाले परजीवी वर्गों ने आज पूरी मानवता को संकट के कगार पर ला खड़ा किया है। पूरी धरती और मानवजाति की तबाही की कीमत पर अपना वैभव-विलास कायम रखने के लिए वे दिन-रात साजिशें रच रहे हैं। अपने सांस्कृतिक माध्यमों के जरिये वे पूरी दुनिया में दिन-रात उपभोक्तावाद, यथास्थितिवाद, चरम व्यक्तिवाद और खुदगर्जी का प्रचार कर रहे हैं। जनता की पहलकदमी और एकता को तोड़ने के लिए वे लगातार सांस्कृतिक प्रदूषण फैला रहे हैं। फिर भी दुनियाभर के मेहनतकश इन साजिशों को नाकाम करते हुए एक नये समाज के निर्माण के लिए लगातार प्रयासरत हैं। दुनिया के कोने-कोने से नये तरह के संगठन और आन्दोलन उठ खड़े हो रहे हैं। हमें भी अपना प्रयास तेज करना है। मरणासन्न साम्राज्यवाद अपनी ताकत पर नहीं बल्कि दुनिया की जनता की निष्क्रियता और हताशा के चलते जिन्दा है। इस धरती पर उसका बना रहना विश्व जनगण के लिए असह्‌य पीढ ा-व्यथा का कारण बना हुआ है। अपनी चेतना और  संगठन को बढ़ाकर ही जल्दी से जल्दी उसका अंत करना सम्भव होगा।

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