सोमवार, 29 अगस्त 2011

आर्थिक विकास की विकृतियाँ

      यह सही है कि आर्थिक सुधार के चलते पिछले कुछ वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है और अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में तेजीआने से देश के मुट्ठी भर लोगों की जिन्दगी में खुशहाली आयी है। लेकिन प्रश्न यह है कि इस विकास की बनावट, बुनावट और दिशा क्या है?
     किसी भी अर्थव्यवस्था को कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र में इसलिए बाँटा जाता है ताकि उनके आपसी सम्बंधों और विकास की दिशा को समझा जाये। लेकिन स्वस्थ और स्थायी आर्थिक विकास के लिए इन अलग-अलग  क्षेत्रों के बीच आपसी जुड़ाव और परस्पर निर्भरता जरूरी है। उदाहरण के लिए कृषि क्षेत्रा का विकास उद्योग के विकास को प्रेरित करता है, क्योंकि खेती के उपकरणों और उस पर निर्भर लोगों का उपभोग बढ ने से औद्योगिक माल की माँग बढ ती है। साथ ही इन दोनों उत्पादक  क्षेत्रों का विकास होने से सेवा क्षेत्रा की माँग बढ ती है और उसके विकास को गति मिलती है। अगर अर्थव्यवस्था के  अलग-अलग  क्षेत्रों का आपस में कोई तालमेल न हो, यदि किसी एक क्षेत्रा में गिरावटकी कीमत पर कोई दूसरा क्षेत्रा फल-फूल रहा हो, तो इसे विकृत विकास ही कहा जायेगा, जैसे किसी के शरीर का कोई अंग तेजी से बढ ने लगे तो यह कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी को जन्म देता है जो पूरे शरीर के विनाश का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिए अगर भारत जैसे कृषि प्रधान देश में खेती ठहराव का शिकार हो और सेवा क्षेत्रा तेजी से विकास कर रहा हो, बहुसंखय लोगों की वास्तविक आय बढाने वाले कृषि और उद्योग क्षेत्र की तुलना में शेयर बाजार या भवन निर्माण और जमीन-जायदाद का कारोबार फल-फूल रहा हो तो इसे स्वस्थ विकास नहीं कहा जा सकता। यह थोड़े से ऊपरी तबके के बीच सिमटा हुआ विद्रूपतापूर्ण विकास ही कहा जायेगा। विकास के मौजूदा दौर में हमारे यहाँ ऐसी ही तस्वीर दिखाई दे रही है।
     पूँजीवादी विकास की गति स्वाभाविक हो तो सकल घरेलू उत्पाद में खेती की पैदावार का अनुपात उद्योग की तुलना में कम होता है। लेकिन कुल मिलाकर पैदावार की निरपेक्ष मात्रा बढ़ती जाती है। पूरी अर्थव्यवस्था में खेती का हिस्सा जिस अनुपात में कम होता है उसी अनुपात में उसमें काम करने वाली श्रम शक्ति की संखया भी कम होती जाती है। यानी उत्पादकता बढ ने के चलते कम श्रमिक ही पहले से अधिक मात्रा में उत्पादन कर लेते हैं और बाकी लोगों को उत्पादन के दूसरे  क्षेत्रों में रोजगार मिल जाता है क्योंकि खेती का विकास उत्पादन की दूसरी शाखाओं में रोजगार के नये-नये अवसर पैदा करता है। वर्तमान सुधारों के दौरान ऐसा कुछ नहीं हुआ। 1983-84 में खेती में कुल श्रम शक्ति का 68.5 प्रतिशत लगा हुआ था जिसका सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा 37 प्रतिशत था। 2004-05 में 56.5 प्रतिशत श्रम शक्ति खेती में लगी थी जबकि अर्थव्यवस्था में उसका हिस्सा 21.1 प्रतिशत था। इसका सीधा अर्थ है कि कृषि क्षेत्रा में सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में 2.7 गुना अधिक श्रमिक लगे हुए हैं जबकि 20 वर्ष पहले यह अनुपात दो गुना ही था। काबिलेगौर बात यह भी है कि इसी अवधि में खेती का मशीनीकरण भी बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था के दूसरे  क्षेत्रों के श्रमिकों का औसत उत्पादन कृषि क्षेत्रा के श्रमिकों की तुलना में 5 गुना अधिक है। 2010 के आंकड़ों के मुताबिक कृषि क्षेत्रा के श्रमिकों की औसत आय में और भी कमी आयी है क्योंकि सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी (16.1 प्रतिशत) की तुलना में कार्यरत श्रम शक्ति (52 प्रतिशत) का अनुपात बढ कर 3.2 गुना हो गया। पहले शासक वर्ग खेती के विकास पर ध्यान देता था क्योंकि उसे चिंता थी कि खेती के पिछड़ने से उद्योग की माँग गिरेगी। लेकिन विकृत विकास के मौजूदा दौर में अभिजात्य वर्ग की छोटी सी जमात की माँग को पूरा करने के लिए कृषि का सीमित विकास भी पर्याप्त है। इसीलिए हमारे शासकों ने पूरे देश के बारे में सोचना बन्द कर दिया है। उन्होंने खेती को हाशिये पर धकेल दिया है। अब यदि वे खेती के विकास के बारे में सोचते भी हैं, तो उनका मकसद खेती से अधिकाधिक मुनाफा हासिल करने और किसानों के शरीर से एक-एक बूंद रक्त निचोड ने में देशी-विदेशी पूँजीपतियों, अनाज व्यापारियों, खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियों और कृषि लागत का कारोबार करने वालों की मदद करना होता है।
     विनिर्माण क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा इन्हीं 20 वर्षों (1983-84 से 2004-05) में 14.3 प्रतिशत से बढ कर 15.1 प्रतिशत हुआ, यानी केवल 0.8 प्रतिशत बढ़ा है जबकि इस बीच श्रमशक्ति 10.7 प्रतिशत से बढ कर 12.2 प्रतिशत हुई है। विनिर्माण क्षेत्र को दो हिस्सों में बाँटा गया है संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र। संगठित क्षेत्र में विनिर्माण में लगी देश की कुल श्रम शक्ति का 2 प्रतिशत ही कार्यरत है, जबकि असंगठित क्षेत्रा में 10.2 प्रतिशत। संगठित क्षेत्र में कार्यरत कुल श्रमिकों की संख्या 1997-98 से 2004-05 के बीच 16 प्रतिशत कम हुई है।
     वर्ष 2001-02 में देश भर में कुल 1.29 लाख फैक्ट्रियाँ थी जिनमें से 1.05 लाख लघु उद्योग थे, जहाँ प्लांट और मशीन पर एक करोड रूपये से कम पूँजी लगी थी। शेष 24 हजार मध्यम और बड़ी फैक्ट्रियों में देश की कुल श्रम शक्ति का केवल 1.5 प्रतिशत कार्यरत था जबकि देश के कुल औद्योगिक उत्पादन का 60 प्रतिशत इन्हीं थोड़ी सी फैक्ट्रियों में होता था। यानी भारत के औद्योगिक श्रमिकों का बड़ा हिस्सा लघु उद्योगों में उत्पादन के पारम्परिक और पिछड़े साधनों पर निर्भर है जहाँ असंगठित मजदूरों द्वारा बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिये बड़े ब्राँडनेम वाले सामान बनाये जाते हैं। उद्योग की ऊँची विकास दर में मुखयतः ऐसे ही श्रमिकों का योगदान है जो बेहद खराब सेवा शर्तों और बहुत ही कम मजदूरी पर लघु उद्यमों और असंगठित क्षेत्र में खटते हैं।
     सुधारों के इस दौर में अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्रा काफी तेजी से बढ़ा है। सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्रा का हिस्सा 1983-84 में 38.6 प्रतिशत से बढ कर 2004-05 में 53 प्रतिशत हो गया, यानी 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसी दौरान वहाँ काम करने वाले श्रमिकों की संख्या 17.6 प्रतिशत से बढ कर 24.6 प्रतिशत हो गयी। सेवा क्षेत्र का बड़ा हिस्सा कम मजदूरी वाले छोटे-छोटे कामों में लगे लोगों का है जिनका गुजारा मुश्किल से ही हो पाता है। थोड़ी संख्या में ऊँची आय वाले श्रमिक आईटी, वित्त, जमीन-जायदाद का कारोबार, मीडिया और बिजनेस सेवाओं में लगे हुए हैं जहाँ सेवा क्षेत्रा में लगी कुल श्रम शक्ति का केवल 2 प्रतिशत ही कार्यरत हैं, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में इसका हिस्सा 13.5 प्रतिशत है।
    किसी भी देश में जहाँ विकास का स्तर वहाँ पहुँच गया हो कि जनता की बुनियादी जरूरतें आसानी से पूरी हो रही हों, वहाँ सेवा क्षेत्र का विस्तार कोई बुरी बात नहीं। लेकिन जिस देश में जनता का बड़ा हिस्सा अपनी न्यूनतम जरूरतों से भी वंचित हो वहाँ सेवा क्षेत्रा का बेहिसाब फूलते जाना अर्थव्यवस्था की परजीविता और रुग्णता का सूचक है। परजीवी इसलिए कि यह क्षेत्रा अपनी मौलिक जरूरतों के लिए कृषि और उद्योग में लगे उत्पादक लोगों पर निर्भर है जबकि बदले में उनमें से अधिकांश श्रमिकों को कुछ नहीं देता। सोचिए, कितने किसान या फैक्ट्री मजदूर मनोरंजन, होटल, मीडिया, आईटी, फैशन, कोठी-बंगला की खरीद-बिक्री, सिनेमा, व्यापार सेवाएँ या अत्याधुनिक संचार माध्यमों का उपयोग करते हैं। दूसरी ओर वे श्रमिक ही इस परजीवी क्षेत्रा में कार्यरत लोगों की हर छोटी-बड़ी जरूरत की वस्तुएँ पैदा करने के लिए दिन-रात खटते हैं।
    जाहिर है कि आर्थिक सुधारों ने विभिन्न क्षेत्रों के बीच विषमता की खाई बहुत चौड़ी की है, वास्तविक उत्पादन क्षेत्रा की जगह परजीविता को बढ़ावा दिया है, औद्योगिक उत्पादन को मुट्ठीभर अभिजात्यों की माँग तक सीमित रखा है और इस तरह देश की मेहनतकश आबादी को इस विकास से बाहर धकेल दिया है।

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