मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

मई दिवस और मेहनतकश वर्ग के सामने चुनौतियां


मई दिवस मजदूर वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय इतिहास में मील का पत्थर है।

मजदूर वर्ग के नेतृत्व में संपन्न कई क्रांतियों के बाद मानव इतिहास की यह सबसे महत्वपूर्ण घटना है। लोकप्रियता के हिसाब से तो यह दिन संभवत: अव्वल है जिसे सबसे बडे पैमाने पर मनाया जाता है, यह मामले का एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू यह है कि यह आयोजन अधिकाधिक खोखला होता जा रहा है। बेजान धार्मिक उत्सवों की तरह। इस महान दिन का राजनीतिक निहितार्थ उत्तरोत्तर लुप्त होता जा रहा है और आयोजन के लिए आयोजन का रिवाज बनता जा रहा है। पूंजीवादी और अवसरवादी (कथन में समाजवादी और करनी में पूंजीवादी) राजनीति के घने बादलों के बीच मई दिवस का सूर्य तत्काल ढंक सा गया है। इसलिए मजदूर वर्ग की पार्टी के सामने सबसे बड़ा कार्यभार है कि वह मई दिवस की उस पुरानी महिमा को पुनर्स्थापित करे जिसमें इसके निकट आते ही पूंजीपति वर्ग कांप उठता था। उसे अंजाम देने के लिए पूंजीवादी पार्टियों के साथ-साथ नकली कम्युनिस्टों से भी टक्कर लेना होगा।

मई दिवस का इतिहास काफी पुराना (126 साल) है और काफी समृध्द भी। लेकिन मजदूर वर्ग का समग्र राजनीतिक इतिहास जितनी जटिल और जय-पराजय की विविध घटनाओं से भरा पड़ा है, उनकी स्पष्ट छाप मई दिवस के इतिहास पर दिखाई पड़ती है। ऐसा होना बिल्कुल लाजिमी है। अपने वर्तमान कार्यभार को आगे बढ़ाने के लिए, मई दिवस की पुरानी गरिमा को फिर एक बार स्थापित करने के लिए, हमें उसके इतिहास पर सरसरी निगाह डालनी होगी।

मुख्य सवाल यह है कि हम मई दिवस क्यों मनाते हैं? 

इतिहास के अपने नायकों को क्यों याद करते हैं? इसलिए कि हम उनके संघर्ष और बलिदान की उदात्त भावना से प्रेरणा ले सकें और उनके संघर्ष की परिस्थितियों, नारों और तौर-तरीकों को ठीक से समझ-बूझकर आज की परिस्थिति में उनका सर्जनात्मक उपयोग कर सकें। यह मई दिवस मनाने का क्रान्तिकारी तरीका है। मजदूर वर्गीय तरीका है। उसके विपरीत मई दिवस (1 मई 1886) की घटनाओं को याद कर लेना और शहीदों की प्रतिमाओं पर फूल माला चढ़ाकर इतिश्री कर लेना पूंजीवादी तरीका है। अवसरवादी तरीका है। इतिहास दोनों किस्म की घटनाओं से भरा पड़ा है।   हम अपनी बात यहीं से शुरू करते हैं कि आखिर उस दिन क्या हुआ था जिसने उसे ऐतिहासिक बना दिया:

1 मई 1886 को संयुक्त राय अमेरिका में मजदूरों की हड़ताल, शिकागो के मिशिगन एवेन्यू में प्रभावशाली जुलूस। मजदूरों की मांग थी- आठ घंटे का कार्यदिवस, आठ घण्टे आराम तथा आठ घण्टे मनोरंजन। 3 मई को मेककार्मिक रीपर कारखाने के हड़ताली मजूदारों पर बर्बर हमला, इसमें 6 मजदूर मारे गये और कई घायल हुए। 

4 मई को हे मार्केट स्क्वायर पर प्रदर्शन, शांतिपूर्ण सभा पर पुलिस का हमला, भीड़ में बम फेंका गया। एक सार्जेंट की मृत्यु हुई। पुलिस मजदूर भिड़ंत। इसमें 7 पुलिस के सिपाही मारे गए और 4 मजदूर शहीद हुए। मजदूर पारसन, स्पाइस, फिशर और एंगेल्स पर मुकदमा व फांसी और अन्य मजदूर नेताओं को कैद, 18 जुलाई 1889 को दूसरे इंटरनेशनल की पेरिस कांग्रेस ने 1 मई को अंतराष्ट्रीय मजदूर एकता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। 

1 मई 1890 को यूरोप और अमेरिका के मजदूरों ने इस दिन को बड़े धूमधाम से मनाया।  यही है संक्षेप में मई दिवस का घटनाक्रम, और यहीं से शुरू हुई मई दिवस की परंपरा।

1 मई 1886 का यह विद्रोह न तो आकस्मिक था और न ही अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन से अलग-थलग। उनकी यह कार्रवाई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की उपज थी और बाद में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर एकता का केंन्द्र बन गयी। 1867 में उसने इंटरनेशनल की जनरल कौसिंल का यह निमंत्रण स्वीकार किया कि अगले कांग्रेस में अपना एक प्रतिनिधि भेजेगा। ऐसा हुआ भी। अमेरिका के स्तर पर इस आंदोलन को संगठित करने की प्रक्रिया भी 1884 से शुरू हो चुकी थी। अमेरिकी फेडरेशन ऑफ लेबर (एक नवगठित संगठन) ने 7 अक्टूबर 1884 के अधिवेशन में ही प्रस्ताव ले लिया था कि 1 मई 1886 से कानूनी तौर पर काम का दिन 8 घंटों का होगा। भविष्य को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की इस घटना ने किस हद तक प्रभावित किया, उसका खुलासा मार्क्स के साथी एंगेल्स की प्रतिक्रिया में मिलता है। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र की चौथे जर्मन संस्करण की भूमिका में उन्होंने लिखा- 'मैं जिस समय ये पंक्तियां लिख रहा हूं, उस समय यूरोप और अमेरिका का सर्वहारा वर्ग अपनी ताकतों का सिंहावलोकन कर रहा है। पहली बार 'एक' ही फौरी उद्देश्य के लिए-आठ घंटों के दिन को कानून द्वारा कराने के लिए लड़ रहा है।'

'जो नजारा हम आज देख रहे हैं, वह सभी देशों के पूंजीपतियों और जमींदारों को यह बता रहा है कि आज के दिन सही मायनों में सभी देशों के सर्वहारा एक हो गये हैं, काश! आज मेरे साथ मार्क्स होते और यह सब स्वयं अपनी आंखों से देखते'!

8 घंटों के कार्यदिवस और मजदूर वर्ग की व्यापक एकता के अलावा एक तीसरा पक्ष भी है जिसकी चर्चा एंगेल्स ने की। उसने तत्कालीन पूंजीपतियों और पूंजीवादी चिंतकों के इस पाखंड का भंडाफोड़ किया कि अमेरिका वर्ग शत्रुता से ऊपर है। इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने 3 जून 1886 के अपने पत्र में लिखा- ''पूंजीवादी सोच है कि अमेरिका, वर्ग दुश्मनी और वर्ग संघर्ष से ऊपर है। अब यह भ्रम टूट गया है। धरती का अंतिम पूंजीवादी स्वर्ग तेजी से पुरगाटोरियों में तब्दील होता जा रहा है। यूरोप की तरह नरक बनने से उसे एक ही चीज बचा सकती है कि अमेरिका के नवोदित सर्वहारा का विकास कितनी तेज गति से हो पाता है।'' लेकिन इतिहास वह रूख नहीं अपना सका। साम्राज्यवाद के विकास ने अमेरिका सहित सभी साम्राज्यवादी देशों के मजदूरों को अवसरवाद के दलदल में धकेल दिया और अमेरिका पूंजीवाद का नरक बनने से नहीं बच सका।

मई दिवस को दूसरे इंटरनेशनल द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मजदूर एकता दिवस घोषित कर दिये जाने के कारण इसका स्वरूप तो अंतर्रष्ट्रीय हो ही गया था, वह मजदूर वर्ग की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अभिन्न अंग भी बन गया।  इसी की जरूरत के अनुसार मई दिवस के नारे भी बदलते रहे और संघर्ष के रूप भी। अब यह सिर्फ आठ घंटे श्रम दिवस के लिए आंदोलन का दिन नहीं रहा, बल्कि इसके साथ बालिग मताधिकार, साम्राज्यवादी युध्द व औपनिवेशिक शोषण का खात्मा जैसे मुद्दे भी इसमें जुड़ गये। इसके मनाये जाने के स्वरूप में नये-नये बदलाव आते गये। पहले इसे उद्योगों में काम बंद रखकर मनाया जाता था। बाद में यह निर्णय लिया गया कि सभी औद्योगिक केंद्रों में मजदूर प्रदर्शन करें। प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ और यही पूंजीपतियों के लिए सरदर्द बन गया। मई दिवस मजदूरों के जीवन में इतना महत्वूपर्ण बन गया कि वे अपनी राजनीतिक विजय का जश्न भी इसी दिन मनाते। किसी देश के मजदूर अपनी विजय का जश्न मना रहे होते तो किसी देश के मजदूर अपने देश के पूंजीवाद के खिलाफ जुझारू तेवर का इजहार कर रहे होते थे। यही कारण था कि मई दिवस के नजदीक आते ही पूंजीपति कांप उठते थे, उनकी घबराहट बढ़ जाती थी।

साम्राज्यवाद के उदय के साथ ही मजदूर वर्ग का अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक आंदोलन दो खेमों में बंट गया- क्रांतिकारी और अवसरवादी। तब हम कह सकते हैं कि साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के वर्तमान युग में अवसरवाद एक शाश्वत परिघटना के रूप में मौजूद रहा है। अतीत में तो ऐसे भी अवसर आये जब आंदोलन पर अवसरवाद का पलड़ा भारी हो गया। इस अवधि में आम लोगों के बीच यह धारणा हावी रही कि अवसरवाद ही मार्क्सवाद है। दूसरे इंटरनेशनल की अवधि, मोटे तौर पर ऐसी ही थी। बर्न्सटीन और काउत्स्की जैसे अवसरवादी लंबे समय तक मार्क्सवाद के प्रतिनिधि बने रहे। लेनिन ने इस अवधारणा को तोड़ा, इसके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने तथ्यों और तर्कों से इस बात का खुलासा किया कि मार्क्सवाद का मुखौटा पहने ये अवसरवादी साम्राज्यवाद के एजेंट हैं। अक्टूबर क्रांति में लेनिन की सैध्दांतिक प्रस्थापनाएं व्यवहार में बदल गयीं और तब आम जनता यह समझ पायी कि बोल्शेविक क्रांति का विरोध करने वाले लोग साम्राज्यवाद के एजेंट है। लेनिन की सैध्दांतिक प्रस्थापनाओं की जीत से अवसरवाद का नाश तो नहीं हुआ, लेकिन मार्क्सवाद पर अवसरवादियों का प्राधिकार खत्म हो गया और दुनिया के पैमाने पर ऐसे संगठन पैदा हुए जिनके झंडे पर लिखा था- साम्राज्यवाद और अवसरवाद का नाश हो।

मौजूदा स्थिति में हम एक उथलपुथल के दौर से गुजर रहे हैं। अगर 2010 मंहगाई, बदहाली तथा व्यापक बेरोजगारी व छंटनी का दौर रहा है तो 2011 ताकतवर जन उभार का एक यादगार वर्ष बनते जा रहा है। कार्ल मार्क्स के ''दुनिया के मजदूरों, एक हो'' आह्वान की निरंतरता में, तीसरे कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रीय ने इसे ''दुनिया के मजदूरों तथा उत्पीड़ित जनता, एक हो'' के रूप में व्यापकता प्रदान किया। और इसी प्रकार के ताकतवर उभार पश्चिमी एशिया तथा गरीब के देशों में देखने को मिल रहे हैं। टयूनीशिया से पैदा होने वाली यास्मीन क्रांति की खूशबू मिस्र, बहरीन तथा यहां तक कि लीबिया तक फैल गई है। यह तथ्य है कि अमरीका तथा अन्य साम्राज्यवादी ताकतें लीबिया में ''सत्ता परिवर्तन'' के नाम पर वहां के आंदोलन में हस्तक्षेप कर उसे भटकाने की कोशिश कर रही हैं। बावजूद उसके, लीबिया में तानाशाही, मंहगाई तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के विद्रोह को छोटा नहीं किया जा सकता।

इसी तारतम्य में अन्ना हजारे के नेतृत्व में ''भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन'' जिसे पूंजीवादी मीडिया का भरपूर समर्थन मिला था। अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक की लेखन समिति के सदस्य कौन होंगे को बहस का मुद्दा बनाया तथा फासिस्ट नरेंद्र मोदी और जनविरोधी नीतीश कुमार को ''सुशासन'' का प्रमाण पत्र दिया। लेकिन इस आंदोलन में शोषित वर्गों के सवालों को नहीं उठाया गया तथा ''भ्रष्टाचार'' की परिभाषा में श्रम के कानूनी तौर पर लूट को शामिल नहीं किया गया। ''भ्रष्टाचार'' की इस परिभाषा में कम से कम इतना तो जोड़ा जाना चाहिए था कि किसी भी उद्योग में न्यूनतम वेतन का भुगतान नहीं किया जाना भ्रष्टाचार है। इस आंदोलन की केवल यही उपलब्धि रही है कि इससे एक नया शक्तिहीन विधेयक लिखने का अधिकार ही प्राप्त हुआ। लेकिन टयूनीशिया, मिस्र तथा लीबिया में जहां कम से कम, फासिस्ट नेताओं को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है, यहां वो भी नहीं हुआ।

हालांकि, इस पर संदेह है कि टयूनीशिया तथा मिस्र के आंदोलन भ्रष्टाचार, मंहगाई तथा तानाशाही को खत्म कर पायेंगे । इन जगहों पर एक तानाशाह के बदले दूसरे तानाशाह को लाकर समस्या का समाधान किया जा रहा है। अगर इस तरह के ताकतवर आंदोलन इन बुराईयों को मिटा नहीं सकते तो क्या मेहतनकशों और अन्य उत्पीड़ित जनता के लिए कोई आशा बचती है? पश्चिम एशिया तथा गरीब के आंदोलन की कमजोरी यह रही है कि यद्यपि मेहनतकश वर्ग की इन आंदोलनों में व्यापक भूमिका रही है, लेकिन मेहनतकश वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका नहीं रही। इस प्रकार की नेतृत्वकारी भूमिका, जैसा कि दिखता है, इस प्रकार के ताकतवर स्वत: स्फूर्तता के सम्मुख, मध्यमवर्गी तथा उच्चवर्गीय बुध्दिजीवियों के हाथों है। मेहनतकशों तथा अन्य उत्पीड़ित जनता का इस प्रकार का ताकतवर आंदोलन केवल तभी सफल हो सकता है जब वह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में हो तथा नवजनवाद या समाजवाद की स्थापना-मेहनतकशों तथा उत्पीड़ित जनता के शासन की स्थापना उसका स्पष्ट लक्ष्य हो। केवल वर्ग सचेतन मजदूर वर्ग ही इस प्रकार का नेतृत्व प्रदान कर सकता है। इस आंदोलनों ने यह साफ तौर पर दर्शाया है कि पश्चिम एशिया तथा गरीब के वामपंथियों की यह असफलता है कि वे इस प्रकार का एक मजदूर वर्गीय नेतृत्व नहीं पैदा कर पाए। 

सच तो यही है कि हालिया घटनाएं दर्शाते हैं कि हमारे देश में करोड़ों लोग भ्रष्टाचार, मंहगाई तथा गैर प्रजातांत्रिक कदमों के खिलाफ सड़क पर उतरकर संघर्ष करना चाहते हैं। आने वाले दिनों में हमारे देश के मजदूर वर्ग को देश की उत्पीड़ित जनता के साथ मिलकर इस प्रकार के आंदोलन में वर्ग सचेतन नेतृत्व प्रदान करने में समक्ष होना है।

हाल ही में जापान में आए सुनामी तथा वहां के फुकुशिमा नाभिकीय संयत्र की त्रासदी ने भी मजदूर वर्ग के एक और महत्वपूर्ण कार्यभार की ओर इशारा किया है। इसने शिद्दत से यह दर्शाया है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए आंदोलन भी एक महत्वपूर्ण कार्यभार है और इसमें उत्पीड़ित जनता को वर्ग सचेतन मजदूर वर्ग ही नेतृत्व प्रदान कर सकता है। साम्राज्यवाद अपने संकट को दूर करने की चाहत में इस दुनिया से ''मुनाफा'' की अंतिम बूंद को भी निचोड़ लेना चाहता है। दुनिया की जनता इसे कभी स्वीकार नहीं करेगी। लेकिन यह आंदोलन कभी भी सफल नहीं होगा, बशर्ते इसका नेतृत्व वर्ग सचेतन मजदूर, वर्ग करे तथा इसका लक्ष्य सच्चे जनवाद तथा समाजवाद की स्थापना हो।

इस मई दिवस के अवसर पर क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वे तमाम गैर प्रजातांत्रिक कदमों - महंगाई, भ्रष्टाचार, पर्यावरण के क्षरण, भूमि हथियाने आदि के खिलाफ उत्पीड़ित जनता के संघर्ष के साथ एकजुट हों। यह सुनिश्चित करें कि ये आंदोलन सच्चे जनवाद तथा समाजवाद स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़े। क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों को इन कार्यभारों को पूरा करने में मजदूर वर्ग को सक्षम बनाना है।

-तुहिन देब (देशबंधु डॉट को डॉट इन से साभार)

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