शनिवार, 12 मई 2012

समकालीन वामपंथी साहित्य के पतन पर लू शुन का लेख


हमें उन विषयों के बारे में बोलने की आवशकता नहीं जिनपर  दूसरे लोगों  ने पहले ही विस्तार से चर्चा की है. मेरी राय में, आज 'वामपंथी' लेखकों का 'दक्षिणपंथी' लेखकों में बदल जाना बहुत आसान है. सबसे पहले अगर आप लिखने या पढने के लिए खुद को शीशे की दीवारों के पीछे बंद कर लेते हैं, बजाय इसके कि वास्तविक सामाजिक टकराओं के संपर्क में रहने के, तो आपके लिए अत्यंत क्रांतिकारी या 'वामपंथी' बनना बहुत आसन है. लेकिन जिस क्षण  आपका सच्चाई से सामना होता है आपके सारे विचार छिन्न-भिन्न हो जाते हैं. बंद दरवाजे के पीछे क्रांतिकारी विचारों की फुहार छोड़ना बहुत आसान  है. लेकिन दक्षिणपंथी होना भी उतना आसान है. पश्चिम में इसे ही 'सैलून समाजवाद' कहते हैं. सैलून एक बैठक होता है जो बहुत  ही कलात्मक ढंग से सजा होता है और समाजवाद पर चर्चा करने के लिए काफी अनुकूल होता है- बिना उन विचारों को व्यवहार में लाये. सच तो ये है कि मुसोलिनी को छोड़कर जो साहित्यिक आदमी नहीं है, ऐसा लेखक या कलाकार ढूँढना काफी मुश्किल है जो किसी न किसी तरह के समाजवादी विचारों वाला न हो जो कहता हो कि मजदूर और किसान गुलाम बनाये जाने, मार दिए जाने या शोषण किये जाने के काबिल हैं (निश्चय ही मैं यह नहीं कहता कि ऐसे लोग है ही नहींइनके उदाहरण चीनी लेखकों के वर्धमान चन्द्र गुट और  मुसोलिनी के प्रिय लेखक द अनुन्जीयो के रूप में देखे जा सकते हैं)
दूसरे, अगर आप क्रांति की वास्तविक प्रकृति को नहीं समझते, तो भी "दक्षिणपंथी होना आसान है"  क्रांति एक कड़वी चीज है.