शनिवार, 27 अप्रैल 2013

आओ! बहनो सब एक हो जायें ...


एकता!              संघर्ष!                     मुक्ति!
आओ!
            बहनो
                          सब एक हो जायें ...
बहनो,

कल तक हममें से अधिकतर औरतों के लिए पढ़ना-लिखना एक सपना-भर था। आज जब तुम इस पर्चे को पढ़ पा रही हो तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब भी बहुत सारी औरतों के लिए यह आसान नहीं है। पढ़ने-लिखने, वोट डालने और जीविकोपार्जन जैसे हक, बहुत ही कठोर संघर्षों के बाद मिले हैं। इसके लिए कई बहनों ने बेहद दुख और अपमान झेला है। उन्हीं के प्रयासों की वजह से आज हमारी हालत पहले से बेहतर है। आज हम-तुम आपस में बैठकर बात कर सकते हैं। सिर्फ सामान्य घरेलू चीजों के बारे में ही नहीं बल्कि अपने अधिकारों के बारे में भी।

यह सच है कि आज हमें पहले से ज्यादा अधिकार मिले हैं। यहाँ तक कि हमारे देश के संविधान के मुताबिक स्त्री-पुरूष समान हैं। लेकिन लिख देने या कह देने से समाज नहीं बदलता। बिना समाज बदले, उसकी मानसिकता बदले, स्त्री-पुरूष समान नहीं हो सकते। इसी कारण संविधान से समाज की स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। सच्चाई क्या है यह तो रोज-ब-रोज की जिन्दगी में देखा जा सकता है। आज भी मुश्किल से कुछ ही लड़कियाँ पढ़ पाती हैं लेकिन वे कितना पढ़ेंगी यह उन पर निर्भर नहीं करता। ज्यादातर के मन में यही भय समाया रहता है कि जाने कब उनकी पढ़ाई छुड़वा दी जाये।  आज भी शादी जैसा महत्वपूर्ण फैसला उनकी मर्जी के बिना या अक्सर ही उनकी मर्जी के खिलाफ होता है। एक लड़की की शिक्षा-दीक्षा, प्रतिभा इसमें मानी जाती है कि वह लड़के वालों को पसन्द आ जाये। दहेज को लेकर मोल-तोल चलता है। लड़की को देखने-दिखाने रिजेक्ट करने का अपमानजनक नाटक होता है, मानो जिसे दिखाया जा रहा है वह कोई सामान है जिसे लेना या न लेना ग्राहक की मर्जी पर है। शादी की इस पूरी प्रक्रिया में लड़की की गुणवत्ता, उसके साथ आया दहेज है। हाँ, अगर लड़की अपने साथ बाइक, कार नहीं लायी तो उसके जीवन की खैर नहीं। रोज-रोज के ताने, अपमान से तंग आकर यदि वह आत्महत्या नहीं कर लेती तो उसकी हत्या कर दी जाती है। तुम ही सोचो एक समूचे इन्सान की कीमत बाइक, कार जैसी निर्जीव चीजों से भी कम है। बड़े-बड़े मिसाइल और बम बनाने वाले इस देश में हमारी सुरक्षा की क्या हालत है हम अच्छी तरह जानते हैं। सरेआम कोई बलात्कार की धमकी दे सकता है। पैसे और सत्ता के मद में चूर कोई भी किसी भी लड़की को अपनी गाड़ी में खींच सकता है। मासूम बच्ची से लेकर नब्बे साल तक की वृद्धा को अपनी वासना का शिकार बना सकता है और यदि लड़की किसी तरह बच जाये तो यह समाज अपने अपमानजनक तानों से उसे जीने नहीं देता। यदि कानून के पास जाये तो पुलिस, कोर्ट-कचहरी, वकील कदम-कदम पर उसके साथ अपने शब्दों से बलात्कार करते हैं और हाँ अपराधी छुट्टे घूमते रहते हैं। यह है आज की व्यवस्था। यह वही व्यवस्था है जिसमें गरीब, मजबूर, बेसहारा औरतों की बोली लगायी जाती है, जिसमें नन्हीं मासूम बच्चियों की जन्म से तीन दिन बाद ही, खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है।

यही है इस ‘सभ्य’ समाज की सच्चाई जिसमें वेश्यावृत्ति तक को खत्म नहीं किया जा सका बल्कि उसे अपना अंग मान लिया गया है। हमारे देश के लोगों में स्त्री के प्रति भेदभाव इतना गहरा धँसा हुआ है कि इसका हर पल हमें खामियाजा भुगतना पड़ता है। कन्या भ्रूण-हत्या इसका क्रूरतम उदाहरण है। ऐसी समाज व्यवस्था में विज्ञान और तकनीक जैसी चीजें भी हम जैसों की विरोधी बना दी जाती हैं। इस तरह के अमानवीय मूल्यों को भुनाकर पैसा कमाया जाता है, अट्टालिकाएँ खड़ी की जाती हैं। हमारे साथ भेदभाव, भ्रूण से शुरू होकर नवजात, मासूम बच्चियों के बेचे जाने, दहेज के लिए जलाये जाने, पत्नी के रूप में अमानवीय यातनाएँ झेलने तथा विधवा होने पर समाज के दोहरेपन के शिकार होने जैसे अनगिनत रूपों में अनवरत जारी रहता है।

ऐसा नहीं है कि तुम इन बातों पर सोचती नहीं या जानती नहीं। बल्कि हम तुम तो किन्हीं रूपों में इसका शिकार भी बनते हैं। लेकिन हमारी आँखों पर संस्कारों की ऐसी पट्टी चढ़ी होती है कि हम इन अत्याचारों को देख भी नहीं पाते।

हम बचपन से ही गुलाम बना दिये जाते हैं, ऐसा गुलाम जो दुख-अपमान झेलना अपनी नियति मान लेता है और उनसे लड़ने के बजाय उन्हें सही साबित करने लगता है। दिनभर घर में खटने और सबकी सेवा-सुश्रुषा करते रहने के बावजूद हमारे काम को काम नहीं समझा जाता। बड़ी आसानी से कह दिया जाता है कि मेरी पत्नी या माँ कुछ नहीं करती। यानी हमारी मेहनत का कोई मोल नहीं। घरेलू काम हमारे स्त्री होने के कर्तव्यों के साथ नत्थी कर दिया गया है। कई बार हम खुद भी घरेलू श्रम जिसपर पूरा घर टिका हुआ है- को कम करके आँकते हैं और इसके बोझ तले धीरे-धीरे हमारी संवेदनाएँ, एक ठण्डी धीमी मौत मर जाती हैं। इसके अलावा एक हिस्सा उन औरतों का भी है जो अपनी जिन्दगी की थोड़ी सी छूट को औरतों की सम्पूर्ण आजादी मान लेती हैं और अपनी हालत से संतुष्ट हो जाती हैं। उन्होंने घरेलू बंधनों को तोड़ दिया है। यह अच्छी बात है लेकिन नौकरी के दौरान मालिक के अपमानजनक व्यवहार और दूसरे पुरुषों के खराब रवैये से वे कैसे आजाद हों? स्त्री-पुरुष के बीच गैर बराबरी को जन्म वाली पुरुषवादी सोच से कैसे लड़ा जाये? जबकि हमें दब्बू और कमजोर बनाने के लिए इन्हीं पुरुषवादी संस्कारों का इस्तेमाल किया जाता है।


लेकिन आज, छोटा ही सही, औरतों का एक हिस्सा ‘औरतपन’ के घेरे को तोड़ रहा है। गाँवों से मीलों पैदल चलकर लड़कियाँ स्कूल जा रही हैं। तमाम परेशानियों के बावजूद वे दफ्तरों, अस्पतालों, स्कूल-कालेजों में काम कर रही हैं। जिन्दगी के हर हिस्से में, समाज की हर जद्दोजहद में शिरकत करने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इसी के साथ हमारे सामने एक नयी चुनौती आ खड़ी हुई है। वही चुनौती जो कि बहुसंख्यक समाज के सामने है। महँगाई और बेरोजगारी की और इसका कारण है सरकारी नौकरियों में तेजी से की जा रही कटौती। जो बहनें सरकारी संस्थाओं में काम कर रही थीं वे छँटनी का शिकार हो रही हैं। तो दूसरी और फीस बढ़ने के कारण लड़कियाँ पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर हो रही हैं। प्राइवेट संस्थाओं में जितनी तनख्वाह मिलती है उससे अपना पेट तक भरना मुश्किल है। प्राइवेट स्कूलों, अस्पतालों में 10 से 12 घण्टे की मेहनत के बाद महीने की आय मात्र 1500 से 3000 रूपये होती है। इन जगहों पर औरतों को इसलिए नौकरी दी जाती है क्योंकि उनसे कम वेतन पर काम कराया जा सकता है। ये संस्थाएँ हमारे धैर्य तथा सहनशीलता जैसे संस्कारगत गुणों का भरपूर फायदा उठाती हैं। साथ ही कुछ खास तरह की नौकरियों में अनुभवी और परिपक्व औरतों की कम और कम-उम्र तथा आकर्षक लड़कियों की माँग ज्यादा होती है। यानि निजीकरण के चलते हमारी हालत और खराब हो गयी है। पैसे वालों के हाथ में सरकार ने हमारा भविष्य बेच दिया है। आज औरत के श्रम पर ही नहीं बल्कि उसके शरीर और उसकी भावनाओं पर भी मुनाफा कमाने वालों का राज हो गया है। यह स्थिति तो पढ़ी-लिखी बहनों की है। जरा अन्दाजा लगाओ कि असेम्बली-लाइन पर काम (पुर्जे जोड़ने का काम) करती हुई, खेतों, ईंट भट्टों पर हाड़तोड़ मेहनत करती हुई मजदूर बहनों की क्या हालत होगी। ऊपर से यह प्रचार किया जाता है कि आज औरत आजाद हो चुकी है, आखिर अब उसे क्या चाहिए?

जिस समाज में हर पल औरत को उसकी ‘हद’ समझायी जाती हो, जहाँ लड़की को पढ़ाई जारी रखने के लिए मिन्नतें करनी पड़ती हो, जहाँ प्रेम करने पर सूली चढ़ा दिया जाता हो, जहाँ कई औरतों ने घर की दहलीज न पार की हो, जिस जगह औरतें अक्सर खून की कमी से पीड़ित रहती हों। वहाँ यह कहना एक भद्दा मजाक है। जबकि असलियत यह है कि आज भी औरत रूढ़ियों, कु-परम्पराओं और मुनाफे की व्यवस्था के दो पाटों में पिस  रही है।

खैर, तुम सोच रही होगी आखिर इस मकड़जाल से निकलने का रास्ता क्या है? आओ, हम मिलकर सोचें, क्योंकि आज हम-तुम केवल सोच ही नहीं सकते, रास्ता भी निकाल सकते हैं। दोस्त, न लड़ने और चुप रहने की आदत ने हमें दूसरों के हाथ का खिलौना बना दिया है। सबसे पहले तो हमें यह चुप्पी तोड़नी होगी। सही-गलत का फैसला खुद करना होगा। भले ही लाख मुश्किलें हों अपनी पढ़ाई-लिखाई, नौकरी जारी रखनी होगी। अपने पैरों पर खड़े होना हमारी आजादी की पहली शर्त होगी। समाज में व्याप्त पुरूष-प्रधान मानसिकता से लड़ते हुए हमें मुक्ति की लड़ाई में अपनी भागीदारी दर्ज करनी होगी। याद है ना, आज 


हमें जो कुछ भी मिला है हमारी पूर्वज बहनो के संघर्षों का परिणाम है। फिर आज बिना लड़े कैसे कुछ मिल सकता है? हमें तो दोहरी लड़ाई लड़नी होगी क्योंकि एक तरफ पिछड़े मूल्य, पुरानी कुप्रथाएँ और अन्धविश्वास हमारे पाँव की बेड़ियाँ बन रहे हैं तो दूसरी ओर पैसे का निर्मम राज हमारी बोटी-बोटी बेचकर उससे मुनाफा कमाने पर उतारू है। दोस्त, यह मत भूलना कि संघर्ष की राह पर छोटे-से-छोटा योगदान बहुत महत्वपूर्ण होता हैं हमें यह स्थापित करना होगा कि औरत इन्सान है और उसे समाज में जीने, पढ़ने, काम करने का, बराबर का हक मिलना चाहिए। बहनो, अकेले-अकेले लड़ने से आदमी थक-हार जाता है और समूह में कमजोर से कमजोर भी ताकतवर होता है। इसलिए हमें एकजुट होकर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ने का प्रयास करना चाहिए। ‘नारी मुक्ति संगठन’ उसी प्रयास की शुरूआत है। आओ, हम अपनी घुटनभरी सिसकियों को नारों मे बदल दें। अपनी शर्म, झिझक, और संकोच को तोड़ फेंके। लड़ाई अब मात्र हमारी-तुम्हारी लड़ाई नहीं है बल्कि सभी संवेदनशील लोगों की लड़ाई है। आओ, हम आज से ही एक मजबूत संगठन के निर्माण के लिए जी जान से जुट जायें।


दरिया की कसम मौजों की कसम ये ताना-बाना बदलेगा
तू खुद को बदल, तू खुद को बदल तब ही तो जमाना बदलेगा।

-नारी मुक्ति संगठन, मई, 2013


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें