सोमवार, 29 अप्रैल 2013

अमरीकी साम्राज्यवाद के मन्सूबे और इराक युद्ध


(इराक और अफगानिस्तान की जनता ने अमरीका को अपनी जमीन से खदेड़ दिया। दुनिया में अब वह अपना मुंह दिखने के लायक नहीं रह गया है। सालों पहले अमरीका ने आतंकवाद के खात्मे और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने के बहाने इराक और अफगानिस्तान पर बर्बरता पूर्ण हमला किया था। ताकि वहां की खनिज संपदा और तेल को लूट सके। लाखों मासूम बच्चों के स्कूलों के ऊपर बम गिराकर उन्हें मार दिया गया, इराकी जनता के साथ मानवता को शर्मशार कर देने वाली क्रूरता बरती गयी। अमरीका के अनैतिक और जघन्य कारनामों का गवाह अबू गारीब जेल है। नीचे का लेख अमरीकी षड़यंत्रों का पर्दाफाश करने के लिए देश विदेश-१ में छपा था। जब तक अमरीकी साम्राज्यवाद के जुए के नीचे दुनिया की जनता कराहती रहेगी तब तक यह लेख हमें रौशनी दिखता रहेगा।)

अमरीकी आधिपत्य के खिलाफ लड़ रहे इराक के प्रतिरोध-योद्धाओं और वहाँ की जनता ने विश्वविजय के उसके चक्रवर्ती घोड़े की लगाम पकड़ ली, उसको चारों खाने चित करके चारों टांगों को चार खूँटों से बाँध दिया और कहा- ‘‘बस इतना ही, इससे आगे नहीं।’’

अमरीकी साम्राज्यवाद ने जब इराक पर आधिपत्य जमाने के लिए आक्रमण किया तो उसके कई मन्सूबे थे। पहला, इराक के ऊर्जा-स्रोतों पर एकाधिकार कायम करना। दूसरा, इराक को स्प्रिंग बोर्ड बनाकर भूमध्यसागर के दोनों ओर के तथा मध्य एशिया के ऊर्जा भण्डारों पर एकाधिकार कायम करना। उसका तीसरा मन्सूबा था, अपनी आधुनिकतम उन्नत तकनीक और सामरिक शक्ति-जैविक हथियारों, क्षेत्रीय पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले छोटे नाभिकीय हथियारों, अत्याधुनिक इलेक्ट्रानिक सामरिक हथियारों से लदे विमानवाही पोतों (एयर क्राफ्रट कैरियर) और पनडुब्बियों का नग्न प्रदर्शन और इस्तेमाल करके पूरी दुनिया पर आतंक का राज्य कायम करना, जिसमें साम्राज्यवादी समूह के भीतर उसके विरोधी-फ़्रांस, जर्मनी और रूस तथा इच्छुक सहयोगी-ब्रिटेन, इटली इत्यादि भी आते हैं।

अमरीका के ये साम्राज्यवादी मन्सूबे अब इराकी रेगिस्तानों में दफ्न हो चुके हैं। सभी तथ्य इस बात के स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि अमरीका इराक युद्ध हार चुका है और वहाँ से भागने का कोई ‘‘सम्मानजनक’’ तरीका खोज रहा है।

1971 में हो ची मिन्ह के नेतृत्व में वियतनाम की जनता ने अमरीकी साम्राज्यवाद को उसकी हैसियत दिखा दी थी, अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके सामाजिक आधार को गहरी कुण्ठा से भर दिया था जिसे दुनिया वियतनाम ग्रन्थि (वियतनाम सिण्ड्रोम) के नाम से जानती है। डॉलर और सोने का सम्बन्ध समाप्त कर दिया गया, अमरीकी अर्थव्यवस्था चरमरा गयी और आतंकित अमरीका को रूसी साम्राज्यवाद से निपटने के लिए चीन से गँठजोड़ बनाने की आवश्यकता पड़ी।

अमरीकी थैलीशाहों को इससे सबक लेना चाहिए था और अपने विश्वविजय के मन्सूबों पर लगाम लगानी चाहिए थी। लेकिन यह कहावत बिलकुल सही है कि सभी प्रतिक्रियावादी एक ही जैसे होते हैं- वे पत्थर उठाकर अपने हाथ-पाँव तोड़ लेते हैं और ऐसा तब तक करते रहते हैं जब तक उनकी मौत न हो जाए।

अमरीकी साम्राज्यवादी, अपराधी बुश-गिरोह ने इराक युद्ध में छोटे और क्षेत्रीय पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले नाभिकीय हथियारों को छोड़कर सभी आधुनिकतम इलेक्ट्रानिक हथियारों का इस्तेमाल किया है। अपने जन्म से लेकर आज तक अमरीकी साम्राज्यवाद वियतनाम, इण्डोनेशिया और लातिन अमरीका के अनेक देशों में अपनी क्रूरता और बर्बरता को दोहराता रहा है। इराक युद्ध के दौरान अमरीका द्वारा किये गये नरसंहार ने माइलाई और हिरोशिमा जैसे नरसंहारों को भी पीछे छोड़ दिया। इस युद्ध में भी वह लगभग 1,854 अरब डॉलर’ झोंक चुका है जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का कई गुना है। वियतनाम में जहाँ हजारों की संख्या में सैनिक मारे गये, दसियों हजार विकलांग हो गये और हजारों की संख्या में मानसिक रोगों के शिकार हुए वहीं इराक के लाखों लोग-जिनमें औरतें, बच्चे, बूढ़े और बीमार भी शामिल हैं, अमरीकी सेना द्वारा किये गये नरसंहार के शिकार हुए हैं। जब भी सम्भव होगा विश्व की जनता बुश-गिरोह के युद्ध अपराधियों को न्यायालय में घसीट लायेगी और उन्हें सजा देगी।

इराक युद्ध की अमरीकी योजना और आक्रमण का विरोध साम्राज्यवादी समूह के भीतर प्रारम्भ से ही होने लगा था। रूस, फ़्रांस, जर्मनी सहित बहुत से देश इसके विरोध में रहे और अन्त तक उसके साथ शामिल नहीं हुए। यह एक सर्वविदित सच्चाई है कि डाकू गिरोह की एकता लूट के माल के बँटवारे को लेकर हमेशा भंग होती रही है। तीसरी दुनिया के बहुलांश देश भी इसके विरोध में रहे। अरब देशों में बहुतों ने मुखर और कुछ ने मौन विरोध किया। अमरीकी जनता ने युद्ध के विरोध में विशाल प्रदर्शन किये। विश्व भर की जनता ने युद्ध का विरोध किया।

बुश-गिरोह और उसके वफादार ताबेदार ब्लेयर ने इस युद्ध के दौरान छल-प्रपंच और झूठ के आधुनिक विश्व के सारे रिकार्ड तोड़ डाले, पूँजीवादी लोकतन्त्र के रहे-सहे स्वस्थ तत्वों को भी दफ्न कर दिया और इन्होंने अपने को ग्रैबियल गार्सिया मार्क्वेज के उपन्यास ‘‘एकान्त के सौ वर्ष’’ की अन्तिम पीढ़ी के सुअर की दुम वाले गन्दे जुड़वा बच्चे साबित किया।

इराक में अमरीका की शर्मनाक पराजय सबसे पहले तो इराक की जनता की जीत है। साथ ही, यह अमरीका की जनता और विश्व की सभी मेहनतकश जनता की जीत है।

दो शब्द भारत सरकार के बारे में।

वाजपेयी-आडवाणी की सरकार ने अमरीका के सामने बार-बार घुटने टेके और इराक में सैनिक भेजने की उसकी फरमाइश पूरी करने के मन्सूबे बनाये। लेकिन भारतीय जनता के प्रबल बहुमत के सामने वे ऐसा नहीं कर सके।

सोनिया-मनमोहन सरकार ने भी सैनिक भेजने का कई बार मन बनाया लेकिन जनता के प्रबल विरोध के भय से वे ऐसा नहीं कर सके।

भारत के शासक वर्गों की अमरीकापरस्ती अगर इसी तरह बढ़ती रही तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि अपने क्षुद्र वर्गीय और तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति तथा अमरीकी साम्राज्यवाद के विश्व को अपने प्रभुत्व में लाने के मन्सूबों को पूरा करने के लिए वे भारतीय सिपाहियों को भेजें। और इसतरह हम उपनिवेशवाद के दौर से जारी उस गुलामी की प्रथा को आज भी ढोते रहेंगे जिसमें भारतीय सिपाही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हित में तोप का चारा बनने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जाया करते थे और भारत कलंकित हुआ करता था। लेकिन भारत की जनता का प्रबल विरोध ऐसा नहीं होने देगा। भारतीय शासक वर्ग के क्षेत्रीय चौधरी बनने और अमरीका के विश्व का चौधरी बनने के मन्सूबे कभी पूरे नहीं हो सकेंगे।

यह सच है कि सद्दाम हुसैन शियाओं और कुर्दों का हत्यारा और दमनकारी था लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि सी.आई.ए. ने इराक के कम्युनिस्टों, समाजवादियों और प्रगतिशील लोगों की हत्या करवाने के लिए सद्दाम को खड़ा किया था। और यह भी सच है कि सद्दाम लम्बे समय तक अमरीकापरस्ती करता रहा। और यह भी सच है कि ईरान के साथ 10 सालों तक चला युद्ध अमरीका की शह पर सद्दाम द्वारा चलाया गया। इस सद्दाम से अमरीकियों को कोई शिकायत नहीं थी। उनकी शिकायत उस सद्दाम से बनी जिसने उनके प्रति पूर्णतः वफादार कुवैत पर आक्रमण कर दिया और जो तेल का व्यापार डॉलर के बजाय यूरो, येन और युआन में करने के बारे में सोचने लगा।

यहाँ हम अमरीका के एक पूर्व विदेशमन्त्री जेम्स बेकर और भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल के बीच हुए वार्तालाप की दो पंक्तियों को उद्धृत करना चाहते हैं:
जेम्स बेकर: ‘‘यह शैतान तेल पर बैठा हुआ है और हम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते।’’
इन्द्रकुमार गुजराल: ‘‘भारत की खुशकिस्मती है कि हमारे पास तेल नहीं है।’’

यह बिल्कुल सच है, बल्कि सच से भी ज्यादा है कि पूँजीवादियों और साम्राज्यवादियों की नैतिकता, उनका धर्म, उनकी अन्तरात्मा, उनका विवेक, मानवाधिकार, लोकतन्त्र, आजादी, प्रगतिशीलता, इत्यादि-इत्यादि, सब कुछ उनके क्षुद्र स्वार्थों से संचालित होता है। और यह स्वार्थ है उनकी पूँजी का स्वार्थ, पूँजी की बढ़ोत्तरी और उस पर अपना आधिपत्य और एकाधिकार।

सद्दाम जो भी था, एक इराकी था। इराक की जनता-शिया, कुर्द और अन्य मेहनतकश जनता उससे संघर्ष कर रही थी। देर-सबेर वह अपने अधिकार और आजादी हासिल करती। इराक युद्ध के बाद इराकी जनता ने यह साबित कर दिया है कि वह क्रूर, खूँखार और खून से भरे मुँह और नथुने वाले साम्राज्यवादी भेड़ियों को सद्दाम की जगह किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकती। लेकिन क्या साम्राज्यवादी कभी इस बात को समझ सकेंगे।

अफगानिस्तान के तालिबान सिरफिरे, बेवकूफ, जुनूनी और पुनरुत्थानवादी थे लेकिन फिर भी अफगानी थे। उनको सत्ता में पहुँचाने का सबसे बड़ा श्रेय अमरीकी थैलीशाहों को जाता है। लादेन और उमर को भी इन्होंने ही पैदा किया है। जब वे उनकी बात अनसुनी करने लगे और इनके खिलाफ बोलने लगे तो अमरीका को उनमें सभी बुराइयाँ दिखने लगीं। तालिबान जब तक रूसी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते रहे तब तक अमरीका की नजर में वे ठीक थे। जब तक वे मध्य एशिया के ऊर्जा स्रोतों पर कब्जा जमाने में उनके शतरंज के मोहरे बने रहे, तब तक वे ठीक थे। ऐसा नहीं होते ही वे सारे दुर्गुणों से भर गये।

यही है साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नैतिकता। यही है उसकी प्रगतिशीलता। यही है मानवाधिकार का उसका दम्भ। यही है उसका लोकतन्त्र।

अफगानिस्तान में उसकी कठपुतली हामिद करजई, नाटो के सिपाहियों से घिरा बन्दी का जीवन बिता रहा है। विदेशी सरकारों का कोई प्रतिनिधि काबुल में रात बिताने को तैयार नहीं है। लेकिन हमारे ‘‘सूरमा’’ प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह वहाँ रात भर रह आये हैं। भारत और पाकिस्तान के आपसी झगड़ों ने इन्हें अन्धा कर दिया है। वे यह भी नहीं समझते कि अफगानिस्तान हमेशा अफगानियों का रहेगा, कभी भी अमरीका या उसके चमचों का नहीं हो सकता। आधी सदी भी नहीं बीती कि इतिहास का यह सच भारत के रहनुमा भूल गये हैं।

इराक में अमरीकी पराजय एक पूर्व-लिखित दस्तावेज है। यह इसके पहले वियतनाम में लिखा जा चुका था। साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष करती एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका की जनता ने इसे रोज, बार-बार लिखा है।

मानव चेतना के इस युग में उपनिवेशों का निर्माण सम्भव नहीं है। यह धारा कि देश आजादी चाहते हैं, बहुत मजबूत है लेकिन इतिहास को आगे ले जाने में इसकी भूमिका कमोबेश पूरी हो चुकी है। जनता की सही मुक्ति और उसकी समस्याओं का समाधान एक समग्र क्रान्ति में है, एक समाजवादी क्रान्ति में है और यही आज के विश्व की उदीयमान धारा है। इसकी शक्ति निरन्तर बढ़ती जायेगी।

यह सच है कि इतिहास का रास्ता बहुत सुगम नहीं होता। लेकिन इतिहास इराकी जनता के इस बहादुराना कारनामे को हमेशा दोहरायेगा और दुनिया की जनता इसे याद करेगी।

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दिगम्बर

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