रविवार, 28 अगस्त 2011

विदेशी मुद्रा भंडार की असलियत

       1990 में भुगतान संतुलन के संकट ने देश को दिवालिया होने के कगार पर पहुँचा दिया था। इसी अफरा-तफरी में सरकार ने डॉलर महाप्रभु के आगे शीश झुकाते हुए हर कीमत पर विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने का रास्ता अपनाया था। हमारे शासक विदेशी मुद्रा भंडार को विकास का पैमाना बताते हैं जबकि सच्चाई कुछ और ही है।
       विदेशी मुद्रा भंडार जिस भी ह्लोत से आता है वह बदले में भारी मुनाफा या ब्याज वापस ले जाता है। यदि वह शेयर बाजार में लगे तो सट्‌टेबाजी के जरिये बेहिसाब कमाई करता है। कर्जदाता हों या विदेशी निवेशक या अप्रवासी भारतीय जमाकर्ता, सबका मकसद अपनी दौलत बढ़ाना होता है। लेकिन सरकार इन पैसों को विदेशों में प्रतिभूति या बॉण्ड में लगाती है जिस पर उसे एक या दो प्रतिशत का ही लाभ मिलता है, जबकि उसे मुनाफे और ब्याज के रूप में भारी रकम चुकानी होती है। इस तरह विदेशी मुद्रा भंडार कोई डींग हाँकने वाली चीज नहीं बल्कि एक देनदारी है।
      यदि विदेशी मुद्रा विदेशी व्यापार में लाभ से अर्जित होती तो वह अपनी चीज होती, लेकिन हमारे देश में विदेश व्यापार में हर साल ही घाटा होता है। 2009-10 में यह घाटा 118.4 अरब डालर था। इस घाटे की भरपाई विदेशी निवेश या अप्रवासी भारतीय द्वारा जमा किये गये पैसे से या उधार लेकर की जाती है जो काफी महँगा सौदा है। आयात किये जाने वाले अधिकांश सामान धनाढ्‌यों के उपभोग के लिए होते हैं, जबकि निर्यात मेहनतकशों के खून पसीने से तैयार होने वाली वस्तुओं का होता है। जाहिर है कि विदेश व्यापार घाटे के लिए समाज का ऊपरी तबका ही जिम्मेदार है।
      1991 के अंत में भारत का कुल विदेशी मुद्रा भंडार केवल 5.8 अरब डालर था जो 2010 तक 282.9 अरब डॉलर हो गया। लेकिन इनमें से एक पैसा भी अपनी कमाई का नहीं है। इसमें 236.2 अरब डॉलर विदेशी पूंजी निवेश और 179.5 अरब डॉलर कर्ज या उधार का है। यानी कुल मिलाकर 415.7 अरब डॉलर बाहर से आया जिसमें से 144.7 अरब डॉलर विदेशी व्यापार घाटे की भेंट चढ़ गया और मुद्रा भंडार में केवल 292.9 अरब डॉलर ही बचा रहा जबकि 415.7 अरब डॉलर की देनदारी ज्यों की त्यों बची रही। इस देनदारी पर ब्याज और मुनाफे के रूप में हर साल अरबों रुपये विदेशी पूँजीपतियों, अप्रवासी भारतीयों और विदेशी वित्तीय संस्थाओं को भुगतान करना पड ता है। क्या यह सब गर्व करने की बात है?

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