बुधवार, 24 अगस्त 2011

आर्थिक नवउपनिवेशवाद: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

     1990 के बाद साम्राज्यवादी समूह और देशी पूँजीपति वर्ग के संश्रय से कायम आर्थिक नवउपनिवेशवादी व्यवस्था को तात्कालिक रूप से उत्प्रेरित करने वाले कारकों पर विचार करने के बाद, इसे गहराई से समझने के लिए इतिहास पर एक सरसरी नजर डालना जरूरी होगा। इसे हम दो चरणों में बाँट कर समझने का प्रयास करेंगे पहला अंग्रेजों के आने के बाद से 1947 में आजादी मिलने तक का दौर और दूसरा 1947 से 1990 तक नेहरूवादी 'समाजवाद' का दौर।
     पहला दौर, ईस्ट इंडिया कम्पनी के आने से पहले भारत सामन्ती समाज था जिसमें पूँजीवाद के विकास की परिस्थितियाँ और सम्भावनाएँ मौजूद थीं। भारतीय समाज कृषि से दस्तकारी और उद्योग तक की यात्रा करने में समर्थ था। इस बात के काफी प्रमाण मौजूद हैं और देश के ज्यादातर इतिहासविद्‌ इससे सहमत हैं।
डच, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और अंग्रेज, सभी भारत में व्यापार करने आये थे। कालान्तर में भारत में अपनी राजनीतिक सत्ता कायम करने को लेकर उनके बीच प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गयी। इस होड़ में ईस्ट इंडिया कम्पनी आगे निकल गयी। अंग्रेज समूचे देश पर अपना अधिकार कायम करने में सफल हो गये। उसके बाद भारत को सुनियोजित तरीके से लूटने-खसोटने और ब्रिटेन को समृद्ध बनाने का काम उनके शासन के अन्त-अन्त तक जारी रहा।
     ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश सरकार ने भारत की सामन्ती अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक व्यवस्था आरोपित की जो मूलतः ब्रिटिश सरमायादारों के हितों और प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर तैयार की गयी थी।
     अंग्रेजों के शासन काल में भारतीय अर्थव्यवस्था, राजनीति और राजनीतिक संस्थाएँ, शिक्षा प्रणाली और संस्कृति, सब कुछ ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के स्वार्थों और जरूरतों के हिसाब से ढाले गये। इन नीतियों के परिणामस्वरूप यहाँ एक खास तरह के पूँजीवाद के बीज पड़े। पुराना सामन्ती समाज अर्द्धसामन्ती (मूलतः और मुखयतः सामन्ती) समाज में परिवर्तित हुआ। एक नयी उत्पादन प्रणाली का जन्म हुआ जिसे अर्द्धसामन्ती-औपनिवेशिक उत्पादन प्रणाली कहना सटीक होगा। मुट्‌ठीभर राजा-महाराजा, नवाब, जागीरदार, सामन्त, जमीन्दार, इस व्यवस्था के सामाजिक आधार बने। कालान्तर में एक दलाल पूँजीपति वर्ग भी पैदा हुआ जो अंग्रेज पूँजीपतियों के लिए कच्चामाल जुटाने और उनके तैयार मालों को भारत के बाजार में बेचने का काम करता था। इसके साथ ही पढ े-लिखे लोगों का एक अंग्रेजपरस्त तबका पैदा हुआ। वकील, बैरिस्टर, प्रोफेसर, व्यापारी और मध्यम दर्जे के सरकारी कर्मचारी जो अंग्रेजों के प्रति पूर्णतः आस्थावान बने रहे क्योंकि उनका स्वार्थ पूरी तरह ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के साथ जुड़ा हुआ था।
     ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने इस देश का क्या हाल बना दिया, इसे बयान करने के लिए एक ही तथ्य काफी है। 1750 में दुनिया के कुल औद्योगिक उत्पादन में भारत का हिस्सा 24.5 प्रतिशत था। और ब्रिटेन का हिस्सा 1.9 प्रतिशत था 1900 में ब्रिटेन का हिस्सा बढ कर 18.5 प्रतिशत हो गया जबकि भारत का हिस्सा घटकर 1.7 प्रतिशत रहा गया। अंग्रेज जब भारत छोड कर भागने के लिए मजबूर हुए तब तक हमारा सम्पन्न देश भुखमरी और अकालों के देश में बदल गया था।
     ऊपर 1750 और 1900 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट का जो आँकड़ा दिया गया है वह इस बुनियादी बात की ओर इशारा करता है कि किसी राष्ट्र का, किसी समाज का, किसी समुदाय का या व्यक्ति का या किसी जीवित वस्तु का स्वस्थ विकास उसकी आन्तरिक गति से ही निर्धारित होता है। यदि उसकी आन्तरिक गति बाधित हो जाये, क्षीण हो जाये या रुक जाये, तो उसका स्वस्थ विकास सम्भव नहीं हो पाता। विरोध-विकास का यह नियम सार्वभौमिक है। बाह्य गतियाँ किसी वस्तु के स्वस्थ विकास में मददगार भी हो सकती हैं और बाधक भी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आन्तरिक गति के साथ उस बाह्‌य कारण का क्या सम्बन्ध है। 
     भारतीय समाज पर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा जो नयी उत्पादन प्रणाली थोपी गयी वह यहाँ के विकास में बाधक बनी। इसके विपरीत, ब्रिटेन के समाज की आन्तरिक गति स्वस्थ बनी रही और उपनिवेशों की लूट, उसकी आन्तरिक गति को तेज करने में मददगार साबित हुई। परिणामस्वरूप ब्रिटिश समाज सम्पन्न और वैभवशाली बना, ब्रिटेन एक शक्तिशाली देश बना।
     अंग्रेजों ने भारतीय समाज के विकास की आन्तरिक गति को बाधित नहीं किया होता तो निश्चय ही हमारा देश स्वस्थ और स्वाभाविक पूँजीवाद के रास्ते पर आगे बढ ता। सम्भव था कि इस विकास में कुछ देर होती। इसमें पचास या सौ साल या कितने साल लगते, यह कहना मुश्किल है, लेकिन देर-सबेर जब भी यह प्रक्रिया शुरू होती, वह स्वस्थ, सशक्त और स्थायी होती और उसकी रफ्तार भी काफी तेज होती। लेकिन ऐसा नहीं हो सका जिसका दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं।
     ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने के बाद से लेकर 1947 में राजनीतिक आजादी मिलने तक के इस प्रथम चरण में भारतीय सामन्तवाद के साथ भारतीय जनता का टकराव निरंतर जारी रहा। लेकिन इस पूरे दौर में भारतीय जनता के सभी संघर्ष मुखयतः ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ ही केन्द्रित रहे।
     दूसरा दौर, 1947 में राजनीतिक आजादी हासिल करने से लेकर आज तक। नेहरू के समाजवाद की अन्तर्वस्तु 1944 में निर्धारित टाटा-बिड़ला योजना से पूरी तरह मेल खाती थी। यह योजना देश के बड़े पूँजीपतियों ने अपनी वर्गीय सीमाओं और उस समय की राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप पूँजीवादी विकास के लिए बनायी थी। देश में पूँजीवाद विकसित होने की एक अनिवार्य और बुनियादी शर्त थी, उग्र (रेडिकल) भूमि सुधार, एक मुकम्मिल भूमि क्रान्ति। यह भूमि क्रान्ति भारत की तकदीर और तस्वीर बदल देती। उत्पादक शक्तियों के हाथ-पाँव में सदियों से पड़ी बेडियाँ टूट जातीं और पूरे समाज में असीम ऊर्जा का संचार होता। इस विस्फोट के फलस्वरूप मध्ययुग का अन्त हो जाता और अर्द्धसामन्ती-औपनिवेशिक उत्पादन प्रणाली का समूल नाश हो जाता। कृषि से दस्तकारी और उद्योग तक की यात्रा पूरी होती।
     उद्योग-धन्धों का तेजी से विकास और विस्तार होता। देहात की एक बड़ी आबादी को उद्योगों में सार्थक जीविकोपार्जन का मौका मिलता। लोगों की क्रयशक्ति बढ ने के चलते एक विशाल बाजार पैदा होता जो औद्योगिक उत्पादन को और अधिक गति प्रदान करता। सभी हाथ सार्थक और उत्पादक कामों में लगते जिससे विपुल सामाजिक सम्पदा का निर्माण होता। इन आर्थिक बदलावों के परिणामस्वरूप एक नये समाज का निर्माण होता। राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक जीवन में नयी-नयी संस्थाओं का जन्म होता। सामाजिक जीवन की रग-रग में सही मायने में जनवादी मूल्यों की स्थापना होती। जाति, धर्म और लिंग भेदभाव काफी हद तक समाप्त हो जाता। एक सम्पन्न भारत, एक स्वाधीन और स्वावलम्बी भारत के अस्तित्व में आने का मार्ग प्रशस्त होता।
     लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इसकी आन्तरिक गति कमजोर बनी रही तथा उत्पादक शक्तियों की विपुल ऊर्जा और विकास की सम्भावना क्षरित होती रही। आजादी के बाद भी हमारे देश के शासकों ने एक विकलांग और विकृत पूँजीवाद का ही पोषण-संवर्धन किया जिसे गमला पूँजीवाद (फ्लावर पॉट कैपिटलिज्म) भी कह सकते हैं, क्योंकि इसकी जड़े न तो गहराई तक जा सकीं और न ही विस्तार पा सकीं।
     1947 के बाद पूँजीपति वर्ग के हितपोषण के लिए उद्योग के क्षेत्रा में पब्लिक सेक्टर, ज्वाइण्ट सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर की स्थापना हुई। यहाँ के पूँजीपति वर्ग के पास पूँजी का अभाव था, इसलिए पब्लिक सेक्टर और ज्वाइन्ट सेक्टर के बिना प्राइवेट सेक्टर फल-फूल नहीं सकता था। जनता की गाढ़ी कमाई से, खासकर अप्रत्यक्ष करों का बोझ लाद कर इन सेक्टरों में ऊर्जा, परिवहन, बाँध और वैज्ञानिक-तकनीकी शिक्षा के उच्च संस्थान खोले गये, ताकि पूँजीपति वर्ग मेहनतकशों के रोमछिद्रों से बहते खून और पसीनों को चाँदी के सिक्कों में ढाल सके। नेहरू की नीतियाँ, साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेकने की नीतियाँ थी। वे हर निर्णायक घड़ी में साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक देते। साम्राज्यवाद के दबाव को झेलने में वे एक सीमा तक ही समर्थ थे। पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि नेहरू और काँग्रेस के लिए यह भी संभव नहीं होता, यदि तत्कालीन अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ उनकी मददगार न होतीं। इनकी उद्योग नीति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू था विदेशी थैलीशाहों की मदद, जिसका वास्तविक मतलब था, उन्हें इस देश में लूट की आजादी देना। लेकिन इन तमाम सीमाओं, कमजोरियों के बावजूद आत्मनिर्णय और आत्मनिर्भर विकास की उनकी आकांक्षा मरी नहीं थी।
     50-60 के दशकों में जो भूमि सुधार हुए, उससे मालिक रैय्यत को तो कुछ इलाकों में जमीनें मिली, लेकिन भूमिहीन और गरीब किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। कृषि में पूँजीवादी विकास की नीति ही यह थी कि शीर्ष पर भूस्वामियों को बिठाकर नयी तकनीक के सहारे खेती का विकास किया जाये। हरित क्रान्ति या सहकारिता का लक्ष्य मुट्‌ठी भर कुलकों-फार्मरों और धनी किसानों को पूँजीपति वर्ग की कतार में ला खड़ा करना था।
     देश की जनता को गुलाम बनाये रखने के लिए अंग्रेजों ने जो कानून व्यवस्था बनायी थी, उसे बरकरार रखा गया। ब्रिटिश नौकरशाही के पूरे ढाँचे को जारी रखा गया। संस्कृति के क्षेत्रा में सड़े-गले सामन्ती-औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी मूल्यों-मान्यताओं को बनाये रखा गया। राजनीतिक ढाँचा भी ब्रिटेन से उधार ले लिया गया। 13 प्रतिशत विशेषाधिकार प्राप्त लोगों द्वारा चुनी गयी संविधान सभा ने पूरी जनता की किस्मत का फैसला करने वाला संविधान बनाया। शिक्षा के क्षेत्रा में मैकॉले की गुलाम बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था थोड़े बहुत फेर बदल के साथ लागू रहने दिया गया।
     शासक वर्गों के छुद्र वर्गीय स्वार्थों से निर्धारित होने वाली उनकी गलत नीतियों के परिणामस्वरूप संकट गहराता गया। यहाँ का पूँजीपति वर्ग पहले से ही कमजोर था और किसी भी तरह की जनक्रांति से भयाक्रान्त रहता था। यही कारण है कि वह पूँजीवादी-जनवादी कार्यभारों को पूरा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। इतिहास के इस दूसरे चरण में भारतीय समाज में पूँजीपति और भूस्वामी वर्ग के संश्रय के खिलाफ मजदूर-किसान और व्यापक मेहनतकश जनता का संघर्ष जारी रहा।
     पहले से ही गहराते आन्तरिक संकट और 1985-90 के बीच विश्व स्तर पर होने वाले महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों (जैसे रूसी सामाजिक साम्राज्यवादी खेमे और युगोस्लाविया का बिखराव, साम्राज्यवादी देशों में संकट का गहराते जाना और तीसरी दुनिया के देशों का कर्ज जाल में फँसना) ने यहाँ के शासक वर्गों और उनके रहनुमाओं को किंकर्त्तव्यविमूढ़ बना दिया। वे अपना आत्मविश्वास खो बैठे। 1947 के बाद राजनीतिक आजादी और अनुकूल परिस्थितियों का फायदा उठाकर भारत में यथासम्भव स्वतन्त्रा और स्वावलम्बी पूँजीवाद विकसित करने की उनकी रही-सही महत्त्वाकांक्षा भी हमेशा के लिए दफन हो गयी। अपनी पूँजी के विस्तार और भारत के भावी विकास के लिए उन्होंने साम्राज्यवादी समूह द्वारा प्रस्तोतित और प्रस्तावित नीतियों को स्वीकार किया। उन्होंने देश की बहुसंखयक जनता के साथ, यहाँ के आम लोगों के साथ पूरी तरह विश्वासघात किया और अपने आप को उनसे अलग कर लिया। विदेशी सरमायादारों के साथ साँठ-गाँठ करके आज उन्होंने अपनी पूँजी का बेतहाशा विस्तार किया है, वे अपने ही देश की जनता को निर्लज्जता और नग्नतापूर्वक लूट-खसोट रहे हैं तथा विरोध करने पर लाठी-गोली का ताण्डव रचा रहे हैं। महान चिन्तकों ने ठीक ही कहा है कि पूँजी की राष्ट्रीयता और देशभक्ति मण्डी में होती है, उसके लाभ और मुनाफे में होती है।
     अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों और उनके चलते विश्व समीकरण में हुए बदलावों ने साम्राज्यवादी समूह और उसके सरगना अमरीका को पूरी दुनिया में अपने साम्राज्यवादी वर्चस्व और निर्बाध लूट के मंसूबों को पूरा करने का अनुकूल अवसर प्रदान किया। अपने इन्हीं मंसूबों को ध्यान में रखकर वे विश्व व्यापार संगठन जैसे लूट और शोषण के उपकरणों के जरिये पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की मुहिम चला रहे हैं। इसे ही दुनिया भर में ''वाशिंगटन आम सहमति'' के नाम से जाना जाता है।
      इसी साम्राज्यवादी रणनीति के तहत आज भारत में पहले से मौजूद विकलांग पूँजीवाद के ऊपर, गमला पूँजीवादी समाज के ऊपर, एक नयी व्यवस्था आर्थिक नवउपनिवेशवादी व्यवस्था आरोपित की जा रही है। इसका उद्देश्य साम्राज्यवादी समूह और इनके सहयोगी भारतीय सरमायादारों की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को पूरा करना है। भारतीय जनता या भारत के विकास से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह भारतीय समाज के विकास की आन्तरिक गति को बल नहीं प्रदान करता, बल्कि उसकी रही-सही आन्तरिक गति को भी कुचल डालता है।
     यह नयी व्यवस्था ईस्ट इण्डिया कम्पनी और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा लादी गयी व्यवस्था से भिन्न है। इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच देश और काल का काफी अन्तर भी है। यह नयी व्यवस्था सर्वग्रासी और कहीं ज्यादा विनाशकारी है। भारत के सरमायेदार यहाँ की संसदीय राजनीतिक पार्टियाँ, समूचा सरकारी तन्त्रा और बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा तबका, इस व्यवस्था के प्रबल समर्थक हैं क्योंकि इसी से उनका स्वार्थ सिद्ध होता है। इस आरोपित व्यवस्था में साम्राज्यवादी समूह के सामाजिक आधार हैं इस देश के बड़े सरमायादार, बड़े व्यापारी, बड़े ठेकेदार, शेयर-दलाल और सट्‌टेबाज, राजनीतिक पार्टियों के चोटी के नेता, बड़े अपराधी और माफिया, नौकरशाह, बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रबन्धक, कुछ अपवादों को छोड कर सभी शीर्षस्थ बुद्धिजीवी, कलाकर तथा लाखों की पगार पाने वाले शीर्षस्थ मीडियाकर्मी और पत्राकार। इन सबकी कुल आबादी बमुश्किल 5 करोड  है। बेशक ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के सामाजिक आधार की तुलना में इनकी संख्या कहीं ज्यादा है, लेकिन देश की पूरी आबादी के लिहाज से ये मुट्‌ठीभर ही हैं।
     10 करोड  लोग ऐसे भी हैं जो अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थिति और सामान्य उपभोक्ता के तौर पर देश की क्रान्तिकारी आम जनता तथा साम्राज्यवादी समूह और उसके सामाजिक आधार के बीच ढुलमुल खड़े हैं।
     मेहनतकश, मजदूर, जमीन के छोटे टुकड़े से चिपके कंगाल और बदहाल किसान, दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की भारी आबादी, महिलाएँ और छात्रों-नौजवानों का बहुत बड़ा हिस्सा ये सभी मिलकर क्रान्तिकारी जनता और क्रान्तिकारी शक्ति का निर्माण करते हैं।
      इस नयी उत्पादन प्रणाली, इस नयी गुलामी को आरोपित करके बहुत ही लम्बे समय से संक्रमणकाल की दुस्सह पीड़ा झेल रहे भारतीय समाज को दुःख के एक नये पारावार में धकेल दिया गया है जो पहले से हजार गुना ज्यादा त्रासद है। मेहनतकश जनता पर उत्पीड न और दमन बढ ता जा रहा है। मजदूरों की हडि्‌डयों का चूरा बनाकर मेगामार्टों में बेचा जा रहा है तथा अर्द्धभुखमरी के कगार पर पड़े, जैसे-जैसे जीवन बिता रहे किसानों के मुँह से निवाला छीना जा रहा है। इस कुकर्म और षड्‌यन्त्रा में भाजपा और कांग्रेस से लेकर संसदीय वामपन्थ तक, सभी पार्टियाँ शामिल हो गयी हैं। अन्तरराष्ट्रीय और ''राष्ट्रीय'' पूँजी के विस्तार और मुनाफे के लिए सभी नियम-कानून ताक पर रख कर लाठी और गोली के बल पर जनता का उत्पीड न और दमन शुरू हो चुका है। इस बात की सम्भावना बनने लगी है कि जल्दी ही भारतीय राज्य पुलिस और सैनिक राज्य में तब्दील हो जाये। इसके विकास की गति की यह स्वाभाविक परिणति भी है। लेकिन जहाँ दमन होगा, वहाँ प्रतिरोध भी होगा। प्रतिरोध की शुरुआत हो चुकी है। 1991 के बाद से ही देश के विभिन्न हिस्सों में जनान्दोलनों का सिलसिला जारी है। जनता का प्रतिरोध संघर्ष अभी शुरुआती दौर में है और मुखयतः स्वतःस्फूर्त है। लेकिन जल्दी ही यह सुगठित और सुसंगत संघर्ष का रूप ले लेगा।
     आज के दुश्मन अन्तरराष्ट्रीय पूँजी और उसके देशी सहयोगी, दोनों ही कहीं ज्यादा क्रूर, ज्यादा निरंकुश और ज्यादा धूर्त हैं तथा जनता को ठगने और छलने में हर तरह से माहिर हैं। ये आधुनिक तकनीक से सुसज्जित हैं और एक विशाल प्रचार तन्त्रा के मालिक हैं। इसलिए जनता की शक्तियों, उनके विचारकों और चिन्तकों और राजनीतिक रहनुमाओं को अपने को हर तरह से सुसज्जित करना होगा। सिद्धान्त में दृढ  रहते हुए, सार्वभौम सच्चाइयों पर अडिग रहते हुए, अतीत से सबक लेकर संघर्ष के हर रूप और युद्ध की हर कला का इस्तेमाल करने के लिए तैयार रहना होगा।

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