शनिवार, 6 अप्रैल 2013

जहाँ नारी की पूजा होती है...



हमारे देश में अल्ट्रासाउण्ड परीक्षण करवाकर हर साल 5 लाख बच्चियाँ माँ के गर्भ में ही मार दी जाती हैं। पिछले 20 वर्षों के दौरान देश भर में कम से कम एक करोड़ कन्याभ्रूण हत्याएँ की गयी।

देश के 11 लाख परिवारों के बारे में 1998 में की गयी जाँच पड़ताल और शोध से यह दिल दहला देने वाली सच्चाई सामने आयी। लांसेट जर्नल में छपे इस शोध में बताया गया है कि कन्याभ्रूण हत्या करवाने वालों में सबसे आगे हैं हमारे देश के ‘‘शिक्षित’’ और ‘‘सम्पन्न’’ लोग। अगर पहली सन्तान लड़की हुई तो लड़के की चाह में दूसरी और तीसरी बार कन्याभ्रूण हत्या की सम्भावना और भी अधिक होती है।

यह है औरत को देवी मानने वाले समाज का विद्रूप चेहरा! शोध के नतीजे भारतीय समाज के पाखण्ड का पर्दाफाश कर देते हैं। अजन्मी कन्याओं की लाशों के इस ढेर पर देवियों के ‘मन्दिर’ खड़े करने और ‘देवी जागरण’ आयोजित करने में हमारे समाज को कोई शर्म महसूस नहीं होती। भारत की महान सभ्यता और संस्कृति के गीत गाने वाले शिक्षित मध्यवर्ग के लोग ही निर्द्वन्द्व भाव से यह काम कर रहे हैं।

व्यक्तिगत सम्पत्ति की इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह तय है कि माँ-बाप की सम्पत्ति का वारिस बेटा ही हो सकता है। धार्मिक कर्मकाण्ड के मुताबिक बेटे के द्वारा मुखाग्नि देने से ही माँ-बाप को मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए इस समाज को सिर्फ लड़के की चाहत है। लड़की अनिच्छित गर्भ है।

इस स्वार्थ ने हमारे समाज को अन्धा, क्रूर और बर्बर बना दिया है। इसी घृणित मानसिकता को मुनाफे में बदलने के लिए पिछले 20 सालों में भ्रूण परीक्षण करने वाले क्लीनिक हर छोटे-बड़े शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। हालाँकि जन्म के पहले लिंग-परीक्षण कानूनन जुर्म है फिर भी यह आपराधिक कुकर्म धड़ल्ले से चल रहा है। इसी नृशंसता के कारण लिंग-अनुपात में कमी आ रही है तथा देश के कई इलाकों में शादी की उम्र पार कर चुके कुँवारे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। लाखों परिवारों के सामने वंश-वृक्ष सूख जाने की नौबत आ गयी है।

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि औरत को देवी मानने का ढोंग-पाखण्ड छोड़कर यह समाज एक इन्सान के रूप में उसकी अस्मिता और अस्तित्व को स्वीकार कर ले? 

-देश-विदेश १

2 टिप्‍पणियां:

  1. bhai aapne ek swarth ki baat ki hai, ki log dharmik bhawnaon se prerit hokar ladki ko garbh main hi maar dete hain. lekin aap sabse bade aarthik karan ka jikra karna hi bhool gaye. samaj main sthiti(jo ki kaafi chintajanak and durbhagayapoorn hai) ye hai ki ladki jitni jyada padhi likhi ho, uske liye var utna hi padha likha and kamane wala talash kiya jata hai. aur lagbhag 90% shaadiyon main badh chadh kar paisa kharch kiya jata hai. iske mayne ye hue ki ladki ke paida hote hi maa baap ko ek ajeeb chinta satane lagti hai. pehle samaj main use ek eurakshit mahole dene ki, phir use sahi shiksha dene ki, aur aakhir main ye kamyaab padhi likhi ladki apni ek alag pehchaan nahi bana pati(ye mauka bahut kam ko nasseb hota hai), phir iski shaadi ki. so bhai mere maa baap ki situation kahin mushkil hoti hai, aap itni complex situation ko had se jyada simplify kar diye ho. hum hamesha bhool jate hain, determing factors ko, aur explanation ko kaafi simple karke , sirf ek ya do loagon ko doshi thera dete hain. its not a good practice. we should not change the methodology to suit our situation but always maintain a professional integrity and behave responsibly, when we are commenting for public good.

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  2. प्रिय अज्ञात
    आपकी कई बातों से सहमत होते हुए भी एक सवाल मेरे मन में उठ रहा है कि जब आप इतनी बातों को जानते हैं और यह भी जानते हैं की इस समस्या की जड़ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियां हैं, इस समस्या के सभी पहलुओं को लेते हुए तब आप एक लेख क्यों नहीं लिखते और अगर आप ऐसा करते हैं तो हम उसे इस ब्लॉग पर उसे देंगे।जिससे एक नई शुरुआप होगी और पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यता पर करारी चोट की जा सकेगी।

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