गुरुवार, 7 जनवरी 2016

एप्पल कम्पनी का शोषण का नायाब तरीका

साम्राज्यवादियों के वंशज के रूप में आज बहुराष्ट्रीय निगम (एमएनसी) भारत जैसे देशों के संसाधन और सस्ते श्रम की लूटखसोट को जारी रखे हुए हैं। ये कम्पनियाँ बेरोजगारों की भीड़ का फायदा उठाकर नौजवानों से कठोर और अमानवीय शर्तों पर काम करवाती हैं। अमरीकी पूँजीपति सैमुअल इनसुल के शब्दों में ‘‘मेरा अनुभव यह है कि मजदूरों की क्षमता बढ़ानेवाली सबसे बड़ी सहायता फैक्ट्री गेट पर आदमियों की लम्बी कतार है।’’ काम करनेवाले लोगों में यह डर कि कहीं वे बाहर की भीड़ में शामिल न हो जायें, शोषण को बढ़ाने में मदद करता है। यही वजह है कि पूँजीपतियों की हितैषी सरकारों की दिलचस्पी नये रोजगार पैदा न करके बेरोजगारी का डर दिखाकर सस्ता श्रम हासिल करने में है। बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार यह मानवद्रोही व्यवस्था बेरोजगारी के दम पर पूँजी संचय करने में लगी हुई है। इसका सजीव और ताजा उदाहरण है–– अमरीकी कम्पनी एप्पल।
एप्पल के काम कराने का तौरतरीका
एप्पल कम्पनी आई पैड, आई फोन और कम्प्यूटर बेचती है। साथ ही यह इन उपकरणों की डिजाइन, मार्केटिंग और प्रबन्धन को भी देखती है। इसने 2011, 2012 और 2013 में क्रमश: 108, 156 और 170 अरब डॉलर की बिक्री की। करोड़ांे आई पैड बेचनेवाली इस कम्पनी की अपनी कोई उत्पादन इकाई नहीं है। एप्पल की प्रबन्धन टीम उत्पादों के निर्माण के लिए मुख्यत: एशिया में ठेकेदारों की एक पूरी Üाृंखला को सम्भाले हुए है। इसके प्रबन्धकों ने दुनियाभर में ठेकेदारों का चयन इस तरह किया है कि उत्पादन में श्रम की लागत को न्यूनतम स्तर पर लाया जा सके। इसका अनुमान इस तथ्य से लगया जा सकता है कि एप्पल के कुल 748 ठेकेदारों में से 82 फीसदी एशिया में हैं। उनमें से 351 तो अकेले चीन में है। कोई इस धोखे में रह सकता है कि आज पूरब इतना उन्नत हो गया है कि पश्चिम के लिए उत्पादन कर रहा है। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। आज भी यूरोपीय और अमरीकी कम्पनियों की गिद्ध दृष्टि तीसरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों और सस्ते श्रम पर लगी हुई है। किसी भी तिकड़म से वे इन्हें हासिल करना चाहती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था का मुख्य लक्षण है ‘‘अधिक से अधिक मुनाफा’’ किसी भी कीमत पर। देशांे को गुलाम बनाकर, अफीम बेचकर, हथियार और बम बेचकर या सेक्स सीडी का कारोबार करके। पूँजीवाद के इन्हीं काले अध्यायों में एप्पल जैसी दिग्गज कम्पनियाँ राजनीतिक गठजोड़ करके सस्ते श्रम और सार्वजनिक संसाधनों की लूट केे नये अध्याय जोड़ रही हैं। 21 वीं सदी में पूँजीवाद पुराने तरीके से उपनिवेश और राष्ट्रांे को गुलाम बनाने की स्थिति में नहीं है। लेकिन पूँजीवाद अपनी लूटखसोट की मंशा पर कायम है, आज उसने तीसरी दुनिया के देशों के संसाधनों की लूट और श्रम के शोषण का तरीका बदल लिया है।
एप्पल कम्पनी उपकरणों का उत्पादन जिन स्थानीय ठेकेदारों के यहाँ करा रही है वहाँ श्रम के शोषण और अमानवीय परिस्थितियों का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एप्पल का ठेका लेनेवाली चीन की फोक्सकोन फैक्ट्री में 18 से 25 साल की उम्र वाले अठारह मजदूरों ने पिछले दिनों आत्महत्या का प्रयास किया। जिनमें से 14 की जीवन लीला समाप्त हो गयी बाकी जीवनभर के लिए अपंग हो गये। एप्पल ने जिन देशों में कारोबार किया है, वहाँ तरहतरह की रणनीति अपनाकर केवल 23 प्रतिशत टैक्स चुकाया जबकि आयरलैंड में उसने कोई टैक्स जमा ही नहीं किया है। दूसरी तरफ, एप्पल के लिए 12 से 14 घंटे बुरी हालत में काम करने के बावजूद मजदूरों को न्यूनतम वेतन से भी कम मजदूरी दी गयी। 201011 में एक आई पैड की कीमत 499 डॉलर थी जबकि फैक्ट्री लागत 275 डॉलर। इस 275 डॉलर में से उत्पादन में लगे लोगों को बमुश्किल 33 डॉलर मिला। 150 डॉलर डिजाइन, मार्केटिंग और प्रबन्धन में लगे लोगों की तनख्वाहों पर खर्च हुए, बाकी ठेकेदारों का कमीशन और अन्य खर्चों में। अब मान लीजिए यही आई पैड अमरीका में तैयार होता तो उत्पादन में खर्च 33 डॉलर नहीं 442 डॉलर आता। अगर हम थोड़ा और गहराई में जायें और कहें कि आई पैड के अन्दर के छोटेछोटे पुर्जे भी अमरीका में ही बनाये जाते तो इनकी कीमत 210 डॉलर प्रति आई पैड होती जबकि दक्षिणी देशों और एशिया में ये पुर्जे महज 35 डॉलर प्रति आई पैड में बनते हैं। यही वह मुनाफा है जो इन दैत्याकार कम्पनियों को हमारे जैसे देशों में आने को ललचा रहा है।
कितना हास्यास्पद है कि भारत और तीसरी दुनिया के तमाम अन्य देश जो साम्राज्यवादी लूटखसोट के चलते आर्थिक रूप से पिछड़ गये थे, आज उन्हीं साम्राज्यवादियों के साथ साँठगाँठ करके अपनी आर्थिक समृद्धि तलाश रहे हैं। उनके साथ संबंधों और गठजोड़ों को इस कदर जरूरी बताया जा रहा है, जैसे कोलम्बस ने अमरीका की खोज न की होती तो आज भारत के सामने विकास का रास्ता ही न होता। करोड़ों मेहनतकश नौजवान, पर्याप्त खनिज संसाधन, उपजाऊ जमीन, मौसम में विविधता और खनिज संसाधनों से परिपूर्ण देश अपनी आर्थिक सम्पन्नता और बुनियादी समस्याओं का हल विश्व बैंक और विदेशी निवेशकों में ढूँढ रहा है। यह भारतीय शासक वर्ग की नीतियों की नाकामी ही है कि उसने पूँजीपति वर्ग के संकीर्ण स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए जनहित में कोई दीर्घकालिक योजनाएँ नहीं बनायी और अब तो पूरी तरह देशीविदेशी पूँजी का चाकर बना हुआ है।
हमारे देश के शासक वर्ग ने बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार की हैं। मौजूदा सरकार श्रम कानूनों मे फेरबदल करके रहीसही कमी पूरी करने में लगी है। एक बहुराष्ट्रीय निगम को और क्या चाहिए? बेरोजगारों की भीड़, खेती को घाटे का सौदा माननेवाले हताशनिराश किसान, लचर श्रम कानून और पूँजी की रक्षा करनेवाले शासक।
हमारा दुर्भाग्य! इन सहिष्णु और देशभक्त शासकों ने भारत में सारी अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार कर दी हैं। बहुराष्ट्रीय निगम के रूप में दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं का विध्वंश करनेवाले इस बिना नाथपगहा के जानवर को मेहनतकश जनता का सामूहिक प्रयास ही काबू में ला सकता है। जिसे देरसवेर होना ही है।

राजेश चौधरी

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