शनिवार, 9 जून 2012

किसानों तक सूचनाएँ कैसे पहुँचती है?

प्रयोगशाला से खेत तक सूचनाएँ देने का तन्त्र 1980 तक आते-आते लगभग खत्म-सा हो गया। हरित क्रान्ति के दौरान किसानों को सूचनाएँ देने में इस तन्त्र की एक बड़ी भूमिका रही है। इसके खत्म होने से सबसे बड़ी वजह यह मानी जाती है कि किसान के लिए ऊपर के स्तर पर जो ढांचा तैयार किया जाता था उसी से जुड़ी सूचनाएँ किसानों को दी जाती थीं। इसमें स्थानीय जरूरतों के मुताबिक सूचनाएँ नहीं होती थीं। स्थानीय जरूरतों के मुताबिक कैसी खादें डाली जाएँ, कहाँ से कौन-सा बीज लाया जाए, पानी का उपयोग कैसे किया जाए और किस तरह के कीटनाशक का इस्तेमाल हो इस तरह की सूचनाएँ देना लगभग बन्द हो गया। यह काम सरकारी बाबुओं के जिम्मे था, देश के विभिन्न राज्यों में 531 कृषि विज्ञान केन्द्र तो बने, लेकिन इनसे बाबुओं के परिवार के अलावा किसानों का कोई भला नहीं हुआ। पिछले तीन वर्षों (2003-2006) में इन केन्द्रों पर केन्द्र सरकार ने 487.58 करोड़ खर्च भी किए। सरकारी तन्त्र के विफल होने के कारण किसान खाद, बीज, कीटनाशक और अनाज व्यापारियों पर सूचनाओं के लिए निर्भर रहने लगा और इनके द्वारा सूचनाएँ अपने फायदे को ध्यान में रखकर दी जाती है। आम तौर पर यह स्थिति देखी गई कि किसी गाँव या इलाके में एक किसान इधर-उधर से खेती, पैदावार और अनाज की बिक्री के बारे में जो सुनता था उसी को सही सूचना मानकर ढेर सारे किसान काम चलाते रहे हैं, सरकारी तन्त्र में रेडियों और दूसरे माध्यम भी रस्मी तौर पर ही कार्यक्रम हासिल करने तक सीमित रहे। यदि सूचनाएँ हासिल करने में किसानों का कोई तबका आगे रहा तो वह बड़े किसान, बागवानी, फलों और सब्जी वाले किसान ही रहे हैं।
    अब सरकार ने निजी कम्पनियों को इस क्षेत्र में आने की इजाजत दे दी है। अब गाँवों में किसानों के पास सूचनाएँ पहुँचने के जो माध्यम हैं वे उन पूँजीपतियों या कम्पनियों के नियन्त्रण में हैं जो खेती के सामान बेचती हैं और कृषि को काफी हद तक नियंत्रित करती है। ट्रैक्टर बनाने वाले कम्पनी महेन्द्रा एण्ड महेन्द्रा ने तमिलनाडु में महेन्द्रा कृषि विहार नाम से एक संस्था 2000 में ही खोल दी है जिसमें किसानों को मौसम, बाजार में कीमत फसल लगाने के तरीके की सूचना देने के साथ-साथ उसी छत के नीचे खाद, पेस्टीसाईड और तकनीक एवं खेती के लिए कर्जा देना भी शुरू कर दिया। रैलिस नामक, कम्पनी ने ऐसे दस केन्द्र स्थापित किए हैं जो गेहूँ, सोयाबीन, फल और सब्जियाँ उगाहने वाले इलाके में हैं। रिलान्यस भी पंजाब में ऐसे बडे़ केन्द्र खोलने जा रहा है, हरियाणा में भी सरकार ने उसे ऐसे केन्द्र खोलने के लिए किसानों की जमीन दी है। हरियाणा में ऐसा बड़ा केन्द्र होगा जो गुड़गाँव से झज्जर तक फैला होगा। तम्बकू बेचने और होटल चलाने वाली कम्पनी आईटीसी ने 5050 ई-चौपाल बनाए हैं। जो मध्यप्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, आन्ध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में हैं।
    सरकार भोलेपन से यह जवाब देती है कि ऐसे केन्द्र निजी पूँजी से चलने वाले हैं और उसमें सरकार की तरफ से कोई मद्द नहीं दी यह है कि अस्सी प्रतिशत से ज्यादा किसानों और पिछड़े इलाके तक इस तरह के केन्द्रों की पहुँच नहीं होगी। दूसरी तरफ टेलीविजन और रेडियो का निजीकरण बड़ी तेजी से हुआ है। इसमें बड़ी-बड़ी कम्पनियों के पैसे लगे हैं। समाचार पत्रा तो पहले से ही पूँजीपतियों के हाथों में है, इनके द्वारा कृषि से सम्बन्धित सूचनाएँ ऐसी नहीं हो सकती हैं जो कि किसानों के हितों को ध्यान में रखें। बाजार से विज्ञापन लेना उनका पहला काम होता है। इसलिए बाजार की सेवा में लगे ऐसे माध्यम से जो सूचनाएँ प्रसारित होती हैं वह एक तरह से कम्पनियों को लाभ पहुँचाने वाला प्रचार ही होता है।
    स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि ऐसे माध्यमों के जरिए यदि दुनिया के किसी हिस्से में किसी उत्पाद की कीमत घटने की सूचना ही जाती है तो स्थानीय स्तर पर व्यापारी या कम्पनियों के प्रतिनिधि उस सूचना से किसानों को डराते हैं और उनके साथ मनमाना करने का मनोविज्ञान तैयार करते हैं, इस पूरे जाल को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि सभी क्षेत्रों में सक्रिय जैसे बीमा कम्पनी, खाद कम्पनी, बीज कम्पनी, तकनीक और मशीनें बेचने वाली कम्पनी, कर्ज देने वाली कम्पनी आदि आपस में तालमेल करके एक बड़ा गु्रप तैयार कर लेती हैं और पूरे बाजार पर अपना कब्जा कर लेती हैं। सरकार छोटे किसानों के लिए भी अपने ऐसे सूचना केन्द्रों को बचाने की चिन्ता से लैश नहीं दिखाती है। इसीलिए इन केन्द्रों से उसने अपने हाथ पीछे खींचना शुरू कर दिया है।

-किसान जून 2008 से 

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