शनिवार, 5 अप्रैल 2014

लोकसभा चुनाव 2014

यह तो पतन की पराकाष्ठा है
खबर है
कि जनता ने सरकार का विश्वास
खो दिया है,
क्या सरकार के लिए
यह मुनासिब नहीं
कि वह इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए
कोई दूसरी जनता चुन ले ?
–बर्तोल्त ब्रेख्त
चुनाव की घोषणा होते ही संसदीय राजनीति के पतित, घृणित और विद्रूप चेहरे
एक–एक कर सामने आने लगे । हर तरह के आदर्शों और सिद्धान्तों को ताक पर रख कर
सभी पार्टियाँ किसी भी कीमत पर वोट जुटाने में लगी हैं । सिर से पाँव तक भ्रष्टाचार और
अपराध के पंक में लिथड़े, परले दर्जे के अवसरवादी नेता अपनी फूटपरस्ती, गुण्डागर्दी, काले
धन्धे की कमाई और ऐसे ही तमाम हथकण्डे अपना कर चुनावी वैतरणी पार करने में जुट
गये हैं । जातिवाद, इलाकावाद और फिरकापरस्ती का जहर फैलाकर वोटो का धु्रवीकरण करने ं
की होड़ में सब एक–दूसरे को मात देने में लगे हैं। कोई इस पार्टी को छोड़कर उस पार्टी
में जा रहा है तो कोई इस मोर्चे को छोड़ कर उस मोर्चे में शामिल हो रहा है । वादों, मुद्दों
और घोषणाओं को परे ठेल कर नये–नये मोर्चे और गठबन्धन बन–बिगड़ रहे हैं । दावे के साथ
यह कह पाना मुश्किल है कि आज की तारीख में कौन सा नेता किस पार्टी में है और कौन
सी पार्टी किस मोर्चे में ।

कुछ साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि संसदीय प्रणाली एक
स्वांग बन कर रह गयी है । लगता है कि स्वांग करने वाले लोग अब उससे भी आगे
निकल गये हैं । उन्होंने अपने–अपने मुखौटे और लबादे उतार कर फेंक दिये हैं और पूरी
तरह नंगे होकर अपना कौतुक दिखा रहे हैं ।
भ्रष्टाचार का आलम यह है कि पिछले पाँच वर्षों में न केवल केन्द्र की सरकार बल्कि
तमाम राज्य सरकारों में शामिल नेताआंे ने लूट–खसोट और घोटालों के नये–नये कीर्तिमान
स्थापित किये । भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता में व्याप्त घृणा और आक्रोश को ठण्डा करने
के लिए अन्ना हजारे की अगुआई में जनलोकपाल आन्दोलन चलाया गया और उसी के
एक धड़े द्वारा अरिवन्द केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी का गठन किया गया ।
यह पार्टी भी भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करने के बजाय सिर्फ उसकी पत्तियाँ तोड़ने की
बात करती है । लेकिन सर से पाँव तक भ्रष्टाचार में सनी पार्टियाँ और उनके नेता इतने
से ही भयाक्रान्त हैं और बौखलाये हुए हैं । इस पार्टी का भविष्य क्या होगा, यह इसने अपनी
पहली पाली में ही दिखा दिया जब इसने एक भ्रष्टतम पार्टी के सहयोग से दिल्ली में
सरकार बनायी । पूरी सम्भावना है कि आम आदमी पार्टी भी उन्हीं पार्टियों की कतार में
शामिल हो जाय, जिनके विरोध के नाम पर इसका प्रादुर्भाव हुआ था ।

अखबार, टीवी, रेडियो और उनके सुर में सुर मिलाने वाले सुविधाभोगी भद्रजन
आजकल आम जनता को वोट डालने के लिए प्रेरित–प्रोत्साहित कर रहे हैं । वे आम लोगों
से अपील कर रहे हैं कि इन्हीं भ्रष्टों में से कम भ्रष्ट, पतितों में से कम पतित, अपराधियों
में से कम अपराधी और दगाबाजों में से कम दगाबाज को ठेल–ठाल कर संसद में पहुँचा
दें, ताकि लोकतंत्र की आड़ में भ्रष्टतंत्र का यह खेल जारी रहे । ढेर सारे लेखक, पत्रकार
और बुद्धिजीवी भी लोकतंत्र की वर्तमान दुर्दशा और व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक व्याप्त
भ्रष्टाचार का रोना रोते हुए सतही सुधारों और नीम हकीमी नुस्खों पर रोज बेशुमार कागज
काले कर रहे हैं । लेकिन कोई भी इस समस्या की तह में जाने और इसका स्थायी समाधान
तलाशने के लिए तैयार नहीं हैं ।

जिस देश की 80 करोड़ जनता 20 रुपये रोज पर जिन्दगी बसर करती हो, जहाँ
76 फीसदी लोगों को भरपेट भोजन नसीब न हो, मेहनतकश जनता एक तरफ मंदी से
उत्पन्न बेकारी और मजदूरी में कटौती तथा दूसरी ओर कमरतोड़ महँगाई से त्रस्त हो,
सरकारी सस्ते राशन की दुकानें बन्द पड़ी हों, गरीब जनता के लिए दवा–इलाज,
पढ़ाई–लिखाई और रोजी–रोजगार को कोई इन्तजाम न हो, जहाँ आत्महत्या रोजमर्रे की
सामान्य घटना हो गयी हो, जहाँ बात–बात पर लोगों पर लाठी–गोली चलाई जाती हो, जहाँ
लोकतंत्र केवल मुट्ठी भर लोगों की शानो–शौकत, राजसी ठाटबाट और बेपनाह धन–दौलत
बटोरने का जरिया बन गया हो, वहाँ इस व्यवस्था के हाशिए पर फेंक दिये गये करोड़ों
बदहाल लोगों से भला यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे अभिजातों के इस महाकुम्भ
मंे आकर डुबकी लगाएँ । इस देश के रहनुमा वैसे तो कभी भी जनता के हितैषी नहीं रहे,
लेकिन पहले वे गरीबी–बदहाली मिटाने के वादे करते थे और लोकलुभावन नारों के दम
पर चुनाव लड़ते थे । अब तो हालत यह है कि इन खुदगर्ज नेताओं की झोली में ‘गरीबी
हटाओ’ जैसे खोखले नारे और झूठे वादे भी नहीं हैं । ऐसे में यह स्वाभाविक है कि उनके
प्रति नफरत के कारण लोगों ने उनसे मुँह फेर लिया ।

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